संकलन: नीलिमा दास
जॉन मरे ब्रिटेन के जाने-माने लेखक थे। वह व्याख्याता, विद्वान होने के साथ-साथ काफी सुलझे हुए इंसान थे। लोग उन्हें चलता-फिरता उपदेशक भी कहते थे। उनका ज्यादातर समय लिखने-पढ़ने में ही बीतता। एक बार की बात है वह अपने लेखन कार्य में तल्लीन थे। उसी समय कुछ महिलाएं उनके पास आईं और उन्होंने अपना परिचय समाज कल्याण से जुड़ी एक संस्था के सदस्यों के रूप में दिया। कमरा अंधेरा था। जहां पर जॉन लेखन कार्य कर रहे थे, वहां दो मोमबत्तियां जल रही थीं। महिलाओं से बैठने का आग्रह कर उन्होंने वहां जल रही एक मोमबत्ती को बुझा दिया।
उन्होंने अब महिलाओं से आने का प्रयोजन पूछा। महिलाएं थोड़ी देर चुप रहीं। वे सोच रही थीं, इतना बड़ा लेखक और ऐसा कंजूस! इतने बड़े कमरे में तो दो मोमबत्तियां भी कम थीं और उनमें भी इसने एक बुझा दी। इस आदमी से कुछ मिलना-विलना नहीं है। फिर भी, कोई जवाब न देना उचित नहीं होता। इसलिए थोड़ी हिचक के साथ ही, पर उनमें से एक ने बताया कि वे अकाल पीड़ितों के लिए चंदा मांगने आई हैं। इतना सुनते ही जॉन मरे ने खुश होकर कहा, ‘यह तो बड़ा अच्छा काम है।’ इसके बाद उन्होंने चंदे के रूप में एक सौ डॉलर उन्हें दे दिए। महिलाओं के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। एक ने कहा भी कि हमें तो आपसे कुछ भी पाने की उम्मीद नहीं थी। जॉन मरे समझ गए।
उन्होंने कहा, ‘बचत की अपनी इसी आदत के कारण मैं आज आप लोगों को सौ डॉलर दे पाने में समर्थ हुआ। लेखन कार्य के लिए मुझे दो मोमबत्तियों की जरूरत थी क्योंकि तब ज्यादा प्रकाश चाहिए था। परंतु आपलोगों से बातचीत करने के लिए एक मोमबत्ती का प्रकाश काफी था। इसलिए मैंने एक बुझा दी।’ लेखक की बात सुनकर सभी महिलाएं काफी प्रभावित हुईं। वे अब बचत का महत्व समझ चुकी थीं।