संकलन: ललित गर्ग
सम्राट सिकंदर की विशाल सेना ने शत्रुओं को परास्त करते हुए तुर्किस्तान की सीमा में प्रवेश किया। तुर्किस्तान के बादशाह को यह समाचार मिला। मंत्रियों ने बादशाह से युद्ध की व्यापक तैयारियां करने का निवेदन करते हुए कहा कि हमें उसका प्रतिकार करना चाहिए। दुश्मन की सेना से मुकाबला करना और उसे भगाना हमारा कर्तव्य है। हमें युद्ध करने के लिए सभी प्रकार की खाद्य व सैन्य सामग्री तैयार कर लेनी चाहिए। लेकिन बादशाह ने बड़ी निश्चिंतता से कहा, ‘आप किसी प्रकार की चिंता न करें।’
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सिकंदर की विशाल सेना बिना प्रतिकार आगे बढ़ते हुए तुर्किस्तान की राजधानी में आ गई। तुर्किस्तान के बादशाह ने सिकंदर का भव्यता और प्रेम से स्वागत किया। दोनों आपस में प्रेम से मिले। न सिकंदर ने युद्ध के लिए कहा और न ही तुर्किस्तान के बादशाह ने युद्ध के संबंध में कोई चर्चा की। इस मुलाकात के बाद तुर्किस्तान के बादशाह ने सिकंदर को भोजन में शामिल होने का निमंत्रण दिया, जिसे उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया। दूसरे दिन नगर के मध्य में एक विशाल कलात्मक पंडाल बनाया गया। भोजन के समय पर सिकंदर ने अनुचरों के साथ प्रवेश किया। वहां सोने के थाल सजाए हुए थे। उस पर रंग-बिरंगे रूमाल ओढ़ाए हुए थे।
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सिकंदर ने रूमाल को हटाते ही देखा कि उसकी थाल हीरों, पन्नों, माणिक और मोतियों से जगमगा रही है। अन्य सेनापतियों की थालियां भी सोने-चांदी से भरी हुई हैं। यह देख सिकंदर का चेहरा क्रोध से लाल हो गया। यह भोजन है या मजाक है! तुर्किस्तान के बादशाह ने शांति से कहा, ‘आप क्रोध न करें, आप जिस भोजन की इच्छा करते थे, वही भोजन मैंने आपको प्रस्तुत किया है। स्वादिष्ट व्यंजनों की तो ग्रीस में भी कमी नहीं थी, पर इस भोजन के लिए ही आपको यहां तक आने का कष्ट करना पड़ा है।’ सिकंदर के पास इसका कोई उत्तर नहीं था। वह बिना युद्ध किए ही ग्रीस लौट गया।