संकलन : हफीज किदवई
देश को आजादी मिलने के बाद पहला आम चुनाव हो रहा था। इस चुनाव में जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व की प्रतिष्ठा दांव पर लगी थी, इसलिए कांग्रेस चुनाव कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती थी। वहीं दूसरी ओर विपक्षी पार्टियां भी इस चुनाव में अपनी जोरदार दस्तक दर्ज करवाना चाहती थीं। चुनाव जीतने के लिए पक्ष और विपक्ष, दोनों ने अपनी पूरी ताकत झोंक रखी थी। विपक्ष ने दिल्ली से सटी एक लोकसभा सीट पर एक बहुत बड़े उद्योगपति को टिकट दे दिया।
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उस उद्योगपति की धनशक्ति के सामने कांग्रेस के स्थानीय लीडर चुनाव में खड़े होने को तैयार नहीं थे। परेशान नेहरू ने इस चुनाव की जिम्मेदारी रफी अहमद किदवई को दी और कहा कि दिल्ली से सटी इस सीट को जीतना जरूरी है, जो भी बन पड़े, आप कीजिए। फिर रफी अहमद किदवई ने उस सीट पर युवा सामाजिक कार्यकर्ता सुभद्रा जोशी को खड़ा करने का फैसला किया। मगर सुभद्रा तो चुनाव लड़ने को तैयार नहीं थीं। वजह यह कि न तो उनके पास धन था, न अनुभव था और न ही राजनीति से उनका कोई सीधा वास्ता था।
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रफी अहमद ने उन्हें समझाया कि चुनाव पैसों और विरासत से नहीं जीता जाता, बल्कि जनता की धड़कन सुनकर उसे आवाज देने से जीता जाता है। नेहरू ने इस प्रत्याशी पर आश्चर्य जताया, मगर रफी अहमद किदवई ने उन्हें बताया कि धन शक्ति के सामने जनसेवा को ही मौका देना चाहिए। फिर सुभद्रा ने बंटवारे में हर कमजोर दिल को ताकत दी, सबके जख्मों पर मरहम रखा है। अब जनता को तय करने दें कि वह धन चुनती हैं या जन सेवा। नेहरू मान गए और इस घटना के बाद सुभद्रा जोशी पहला चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचीं। उस वक्त की जनता ने धन, प्रचार, शक्ति के मुकाबले जनसेवा को चुना।