संकलन: राधा नाचीज
उन दिनों महात्मा गांधी साबरमती आश्रम में रह रहे थे। एक दिन एक नवयुवक उनके पास आया और बोला, ‘बापूजी, मैं भी देश सेवा करना चाहता हूं। आप मुझे मेरे योग्य कोई सेवा बताइए। मैं अंग्रेजी का भी अच्छा ज्ञाता हूं। मैंने उच्च स्तर तक पढ़ाई की है और मेरे रहन-सहन का स्तर भी ऊंचा है।’ युवक को लगा कि उसके ऐसा बताने से गांधीजी उससे प्रभावित होंगे और उसे उच्च स्तर का कार्य सौपेंगे।
गांधीजी बोले, ‘फिलहाल तो आश्रमवासियों के भोजन के लिए कुछ गेहूं बीनने हैं, क्या आप इसमें मदद करेंगे?’ यह सुनकर युवक ने बेमन से गेहूं बीनने शुरू कर दिए। उसे गेहूं बीनते हुए काफी देर हो गई और वह थक भी गया। उस युवक ने बोला, ‘बापू, अब आज्ञा दीजिए। दरअसल, शाम का खाना मैं जल्दी ही खा लेता हूं।’ उसकी इस बात पर गांधीजी बोले, ‘कोई बात नहीं, आज आप यहीं पर खाइए। आश्रम का भोजन भी बस तैयार ही होने वाला है।’ युवक ने आश्रम का सादा भोजन बड़ी मुश्किल से अपने गले से उतारा और अपने बर्तनों को भी स्वयं ही साफ किया।
जब वह जाने लगा तो गांधीजी युवक के कंधे पर हाथ रखकर बोले, ‘नौजवान, तुम्हारे अंदर देश-सेवा की भावना होना अच्छी बात है, किंतु इसके लिए मन निर्मल, स्वच्छ होना चाहिए। स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझने के बजाय, सबको एक समान समझने की भावना होनी चाहिए। जो व्यक्ति किसी में फर्क नहीं समझता, वही सब धर्मों, सब स्तरों से ऊपर उठकर सेवा कर सकता है। मेरे ख्याल से तुम समझ गए होगे कि मैं तुम्हें क्या कहना चाह रहा हूं?’ युवक गांधीजी का अभिप्राय समझकर शर्मिंदा हो गया। उसने गांधीजी से माफी मांगी और कहा, ‘बापूजी, आज के बाद मैं कभी स्वयं को श्रेष्ठ और उच्च स्तर का नहीं समझूंगा। सच्चे मन से सेवा करूंगा।’ गांधीजी ने उसे गले से लगा लिया।