महाभारत महाकाव्य की कहानियां रोचक ही नहीं अद्भुत भी है। इसकी परतें इतनी गहरी हैं कि परत दर परत एक कहानी छुपी। महाभारत में कौरवों की संख्या 100 बताई जाती है यानी दुर्योधन 100 भाई था लेकिन सच यह है कि दुर्योधन 100 नहीं पूरे 101 भाई था। यह भाई ऐसा था जिसे दुर्योधन ने कभी अपना समझा ही नहीं क्योंकि वह उसकी माता से उत्पन्न नहीं था और धर्म और नीतियों की बातें करता था। इन्होंने हर गलत काम में दुर्योधन और घृतराष्ट्र का विरोध किया था लेकिन इनकी बातों पर कभी किसी ने गौर नहीं किया और महाभारत के महायुद्ध में ना चाहते भी इन्हें दुर्योधन के साथ रणभूमि में आना पड़ा लेकिन धर्म का पालन करने वाले दुर्योधन के इस भाई को युद्ध आरंभ होने से पहले युधिष्ठिर की सेना में शामिल होने का अवसर मिल गया और धृतराष्ट्र के 101 पुत्रों में केवल यही जीवित बचा।
इस तरह हुआ युयुत्सु का जन्म
ऐसी कथा है कि धृतराष्ट्र चाहता था कि उसके घर पाण्डु से पहले संतान का जन्म हो। लेकिन विधि को कुछ और ही मंजूर था गांधारी गर्भवती हुईं लेकिन इनका गर्भ काल लंबा हो जाने की वजह से पहले पाण्डु के घर पुत्र का जन्म हुआ। दूसरी ओर पुत्र की चाहत में अधीर हुए जा रहे धृतराष्ट्र ने गांधारी की सेवा में नियुक्त सेविका से संबंध बना लिया जिससे एक पुत्र का जन्म हुआ। घृतराष्ट्र और सेविका का यह पुत्र युयुत्सु के नाम से जाना गया। इनका लालन-पालन अन्य कौरव राजकुमारों की तरह से हुआ क्योंकि यह धृतराष्ट्र के पुत्र थे लेकिन दुर्योधन ने कभी युयुत्सु को अपने भाई के रूप में स्वीकार नहीं किया और इनका अपमान किया।
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महाभारत युद्ध में इसलिए बच गई युयुत्सु की जान
युयुत्सु ने महाभारत युद्ध रोकने का काफी प्रयास किया लेकिन वह असफल रहे। कुरुक्षेत्र के मैदान में इन्हें दुर्योधन के पक्ष में आना पड़ा लेकिन युद्ध से पहले जब युधिष्ठिर ने यह कहा कि इस धर्म युद्ध में धर्म किधर है वह आप सभी जानते हैं। कौरव सेना के योद्धा जो हमारी तरफ आना चाहते हैं वह हमारी ओर आ सकते हैं उनका हम स्वागत करेंगे और हमारी सेना से जो लोग उस ओर जाना चाहते हैं चले जाएं उनका भी हम सम्मान करेंगे। इस घोषणा को सुनकर केवल युयुत्सु का ही विवेक जगा और वह पाण्डवों की ओर आ गया। दुर्योधन ने युयुत्सु के इस व्यवहार पर उसे कायर और दासी का पुत्र तक कह डाला।
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महाभारत के युद्ध में निभाई थी ये खास जिम्मेदारी
युधिष्ठिर ने अपनी ओर आए युयुत्सु के प्राणों की रक्षा के लिए उन्हें युद्ध में सीधे तौर पर शामिल नहीं किया बल्कि उनकी बुद्धि कौशल और प्रबंधन क्षमता का प्रयोग किया। इन्हें योद्धाओं के लिए हथियारों और रसद की आपूर्ति व्यवस्था का प्रबंध देखने के लिए कहा। युयुत्सु ने अपने इस दायित्व को बहुत जिम्मेदारी के साथ निभाया और संसाधनों की कमी के बावजूद पांडव पक्ष को हथियारों और रसद की कमी नहीं होने दी।
महाभारत युद्ध के बाद भी युधिष्ठिर ने इन्हें महत्वपूर्ण कार्य सौंपा। इन्हें महामंत्री का पद प्रदान किया गया। पाण्डव जब अपना राजपाट अपने पौत्र परीक्षित को सौंपकर स्वर्ग जाने लगे तो इन्हें परीक्षित की देखभाल का का दायित्व सौंप दिया।