डॉ प्रणव पण्ड्याः वर्ष का बदलना समय के उल्लास का सूचक है और उसका सही उपयोग कर लेना उससे भी सुखद पहलू है। नववर्ष 2020 का आरंभ अनंत संभावनाओं के साथ हुआ है। विश्व समुदाय ने खुले मन से नए साल का स्वागत किया है। 1 जनवरी से प्रारम्भ होने वाले नव वर्ष के संदर्भ में यह कहा जाता है कि इस नव वर्ष के पीछे कोई शास्त्रीय आधार भले ही न हो; लेकिन समय का नवागमन इसमें भी है।
प्रत्येक समय हर व्यक्ति से सही ढंग से अपने नियोजन की अपेक्षा रखता है। सही उपयोग करने वाले को पारितोषिक और दुरुपयोग करने वाले को दंड देने से वह नहीं चूकता। समय का नियम भी यही है। आज मनुष्य समय को अपने अनुसार चलाना चाहता है। समय की अनंत विशालता को अपनी मदहोशी, संकीर्णता, अजनबीपन में समेटकर हर्षित होने का स्वप्न देखता है। इसीलिए उसे वर्ष के पूरे 365 दिन साथ-साथ बिताने के बावजूद अंत में खाली हाथ ही रहना पड़ता है और होश में आने तक सब कुछ निकल चुका होता है।
नए साल पर इस कहानी से बहुत कुछ सीख सकते हैं
इस संदर्भ में एक कथानक है। एक अजनबी किसी अनजाने देश में पहुंचा, उस देश की भाषा, संस्कृति, रीति-रिवाजों से वह अपरिचित था। उसने लोगों को किसी विशाल भवन से आते-जाते देखा, तो वह भी प्रवेश कर गया। तरह-तरह के पकवानों को देखकर समझा, कोई दावत का आयोजन है। सजी टेबलों में से एक पर जा बैठा और भोजन का आनंद लेने लगा। वह खूब छककर खाया। भोजन के बाद बैरे ने जब उसके हाथ में बिल थमाया तो वह मन ही मन यह सोचते हुए उठा कि कितने सज्जन ये लोग हैं, आगंतुकों को भोजन भी कराते और सम्मान-पत्र भी देते हैं। बैरे ने अपनी भाषा में पैसे की मांग दोहराई, पर वह तो अपनी धुन में ही मस्त था। सहयोग के लिए धन्यवाद देता आगे बढ़ गया।
बैरे ने यह हरकत देखकर उसे पकड़कर मैंनेजर के पास ले गया। वह अजनबी बेहिचक था। मैनेजर उसकी हरकतों से आगबबूला हो राजा के पास पहुंचा। राजा ने जब उस अजनबी को दंडित करने का आदेश दिया, तब भी वह अविचलित था। उसके माथे पर कोई सिकन न देख बुद्धिमान् राजा समझ गया कि यह अपने में मदहोश, अज्ञानी और मूढ़ है। अन्ततः राजा के आदेशानुसार उसकी पीठ पर ‘मैं धूर्त हूँ’ की पट्टी बांधी गयी, घोड़े पर बिठाकर उसे सारे नगर में घुमाया गया।
नगर वाले ताने दे रहे थे, बच्चे हुल्लड़ मचा रहे थे, फिर भी वह मस्त था और इसे अपना सम्मान समझ रहा था। इस तरह वह अपने आकलन के अनुसार पूरे राजकीय सम्मान के साथ अपने वतन विदा हुआ मान रहा था। जब वह अपने नगर जाकर इस सम्मान की गाथा सुनाने लगा, तो जनसाधारण उसे अपना नेता मानने की होड़ में थे।
समकक्षी ईर्ष्या की आहें भर रहे थे। कुछ विद्वानों ने सुना, तो उसकी दयनीयता पर तरस आया। उन्होंने उस अजनबी को जब वस्तु स्थिति से अवगत कराया, तो वह सिर धुन-धुन कर पछताने लगा, पर तब तक सबकुछ हाथ से निकल चुका था।
आज हमारी भी यही स्थिति है। काश हम समझ पाते, तो नववर्ष जैसे पवित्र अवसर को मदहोशी में न गंवाकर, वर्ष भर के 365 दिनों की सकारात्मक योजनाएं बनाते, उपयोग करते और इस प्रकार जीवन को धन्य बनाते।
(लेखक गायत्री परिवार के प्रमुख और देव संस्कृति विश्व विद्यालय के कुलाधिपति हैं।)