डॉ प्रणव पंड्या
चैत्र नवरात्रि संकल्प साधना का श्रेष्ठ व सर्वोत्तम मुहूर्त है। यह साधना का महापर्व है, संकल्पित साधना के लिए दिव्य पुकार है। साधना हेतु यह समय असामान्य और असाधारण है। अंतर्मन का निर्माण करने के लिए प्रत्यक्ष क्रियाओं को अपनाने की जरूरत है, यह स्पष्ट किया जा चुका है। व्यावहारिक रूप से जिन क्रियाओं का आयोजन हम करते हैं, उनकी छाप मन के भीतरी प्रदेश पर पड़ती है। धीरे-धीरे अभिरुचि एवं अभ्यस्तता उसी क्षेत्र में परिपक्व होने लगती है और मनुष्य उसी ढांचे में ढल जाता है। अध्यात्म विद्या के आचार्यों ने इसलिए योग की अनेक साधनाएं विनिर्मित की हैं और इस मार्ग के पथिकों को साधना में प्रवृत्त होने का आदेश किया है।
आत्म विद्या के सात साधन हैं। इन सातों को हर कसौटी पर कसकर उनकी महत्ता का परीक्षण किया जा सकता है। इन तथ्यों का विस्तार होने से समाज की सुख-शांति, समृद्धि और सद्भावना में बढ़ोतरी होती है। व्यक्तियों के चरित्र ऊंचे उठते हैं, जिससे उन्हें लौकिक और पारलौकिक दोनों दृष्टियों से लाभ रहता है। व्यक्ति और समाज दोनों का जिसमें कल्याण है, उस विचारधारा के अनुसार मनुष्यों को ढालना हर दृष्टि से कल्याणकारी है। हम कल्याण पथ पर आरुढ़ एवं अग्रसर हों, इसी में परमात्मा की और आत्मा की प्रसन्नता है, यही सबसे बड़ा लाभ है। इस लाभ के लिए ही योग शास्त्रों में विविध अनुष्ठानों का आयोजन किया जाता है। इनमें बताए हुए सात तथ्यों के केंद्र के आसपास सारी साधनाएं घूमती हैं।
दुर्गा सप्तशती में यह सिद्ध मंत्र, नवरात्र में जप बेहद लाभकारी
(1) आस्तिक्य— ईश्वरीय विश्वास मन के ऊपर जमाने और दृढ़ करने के लिए भगवान की पूजा उपासना की अनेकों विधियां काम में लाई जाती हैं। धातु या पाषाण की भगवत प्रतिमाएं बनाकर उनकी पूजा, आराधना की जाती है। स्नान, धूप, दीप, चंदन, आरती, भोग, शयन, आदि क्रियाओं के द्वारा मंदिरों में पूजन आराधन होते रहते हैं। विशेष अवसरों पर फूल बंगले बनाए जाते हैं, उनकी विशेष सजावट होती है, मथुरा वृन्दावन में सावन के महीने में झूलों के उत्सव बड़े समारोह पूर्वक होते हैं। रथ यात्रा, दीपदान, लीला अभिनय आदि के आयोजन होते हैं, रासलीला एवं रामलीला के द्वारा भगवत् चरित्रों की स्मृति जागृत की जाती है। परमात्मा के प्रतिनिधियों के अवतारों और देवताओं के चित्र स्थापित किए जाते हैं। नवधा भक्ति के नौ प्रकार श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद सेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सरव्य, आत्म निवेदन है। इनको चरितार्थ करने के लिए भक्त लोग विविध प्रकार के आयोजन एवं साधन करते हैं। संगीत नृत्य और गायन के साथ संकीर्तन होते हैं, उनकी विमोहित करने वाली ध्वनि लहरी में मनुष्य झूमने लगते हैं। ध्यान, जप, नाम स्मरण, में कितने ही साधन प्रवृत्त रहते हैं। इस प्रकार की साधनाएं ‘आस्तिक्य’ की भावनाओं को परिपुष्ट करने के लिए हैं। इन क्रियाओं के करने से लगातार ईश्वर विषय में ही लुप्त हो जाता है और शरीर की क्रिया उसी कार्य कार्यान्वित रहने से तदनुकूल वृत्तियों का निर्माण होता है।
(2) तत्व दर्शन— वास्तविकता को जानना, ईश्वर को प्राप्त करना, तथ्य को समझना, सद्ज्ञानात्मक बुद्धि से सुसज्जित होना तत्व दर्शन का ज्ञान उसके लिए सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय करना। विचार पूर्ण, निष्पक्ष, वैज्ञानिक आधार पर लिखे गए, पक्षपात रहित सद्ग्रंथ इस दिशा में हमें बहुत आगे तक अग्रसर करते हैं। ऐसे ग्रन्थों का विचार और पाठ चलता है। अपने संबंध में एकांत में अंतर्मुखी होकर अपने आप विचार करना चिंतन कहलाता है। मन और निदिध्यासन से प्रज्ञाचक्षु खुलते हैं। सत्संग, विचार विनिमय शंका समाधान प्रवचन आदि के आधार पर ऋतम्भरा बुद्धि को, सत्यासत्य निरूपिणी विवेक शक्ति को जागृत किया जाता है।
निष्पक्ष शुद्ध, दृष्टि प्राप्त करने के लिए द्वन्द्वों से ऊपर उठना पड़ता है। राग-द्वेष, हर्ष शोक, लोभ-घृणा, मद-मत्सर, मान-मोह, शोध-दीनता आदि द्वंद्वों के आवेश से मस्तिष्क में उत्तेजनाएं उत्पन्न होती हैं उन उत्तेजनाओं से तत्संबंधित ज्ञानतन्तु और परमाणुओं में विशेष रूप से हलचल पैदा हो जाती है, वह उफान अपने निकटवर्ती अन्य अवयवों की शक्ति खींच लेता है और उन्हें निकम्मा बना देता है। फलस्वरूप ऐसे व्यक्तियों का मानसिक विकास, लंगड़ा तथा अधूरा होता है। वे किसी बात को निष्पक्ष रूप से नहीं सोच सकते। अपनी धुनि, सनक मान्यता, हठधर्मी के आधार पर वे एकांगी सोचते हैं, जिससे तत्व निरूपण नहीं होता। जैसे विश्वास बीज जमे होते हैं उसी रंग का चश्मा पहन कर मस्तिष्क सोच विचार करता है और उसी आधार पर निर्णय करता है। ऐसी स्थिति में मनुष्य भ्रम, अज्ञान, अन्धकार, दुराग्रह एवं सनक का शिकार रहता है उसे सत्य का दर्शन नहीं होता। सत्य के दर्शन के लिए निष्पक्ष विशुद्ध, विवेक युक्त दृष्टिकोण की आवश्यकता है। और वह तब प्राप्त होता है जब मनुष्य आवेश रहित हो, निराकुल हो। निराकुलता की रक्षा के लिए वैराग्य की, अनासक्ति की स्थिति प्रज्ञता की आवश्यकता है। उस स्थिति के व्यक्ति को ही भगवान सत्य नारायण के दर्शन होते हैं। गीता का कर्मयोग इसी स्थिति को प्राप्त कराने की साधना है।
(3) आत्म निष्ठा— अपने आपको शुद्ध बुद्ध, चैतन्य, सत् चित् आनंद स्वरूप अनुभव करने के लिए कितनी ही साधनाएं हैं। व्रत, तीर्थ यात्रा देवदर्शन, हवन अनुष्ठान, आदि धार्मिक कर्मकाण्डों का विधान जिन शास्त्रों में है उनमें इनके बड़े-बड़े लंबे चौड़े महात्म्य भी लिखे गए हैं। बताया गया है कि इस कर्मकाण्ड को करने से इतने जन्म के पाप नाश हो जाते हैं, मनुष्य निष्पाप हो जाता है। बहुत बड़ा पुण्य फल प्राप्त होता है, भगवान प्रसन्न होते हैं, स्वर्ग मिलता है तथा लौकिक अनेक आनन्दों की उपलब्धि होती है। इस महात्म्य से प्रेरित होकर लोग धार्मिक-कर्म काण्ड करते हैं। जिसमें कई लाभ होते हैं, शारीरिक स्वस्थता, वातावरण की शुद्धि, धर्म भावनाओं सद्भावनाओं की वृद्धि इस निमित्त से स्वजनों का समियतन दान, आदि कितने ही लाभ उनसे होते हैं। सबसे बड़ा लाभ है कि उस कर्म काण्ड को करने के पश्चात् शास्त्रोक्त महात्मों के आधार पर वह कर्ता अपने आपको निष्पाप, पुण्यात्मा तथा धर्मवान् मानता है। पिछले पाप नाश हो जाने की उसकी मान्यता दृढ़ होती है। वह मानवता उसे आत्मिक महानता की ओर अग्रसर करती है। जो अपने को जैसा मान लेता है, उसके अनुसार कार्य भी करता है। इस प्रकार धार्मिक कर्मकाण्डों से आत्मवान् बनने में बड़ी सहायता मिलती है।
आत्मज्योति का ध्यान, सांस के आवागमन के साथ ‘सोऽहम् मंत्र’ का जप और उस मानना का चिन्तन करने का प्रधान लाभ यही है कि अपनी आत्मा की महानता प्रतिभासित होती है, पराधीनता छोड़कर मनुष्य आत्म निर्भर बनता है, आत्म सम्मान, आत्म विश्वास एवं आत्म गौरवता को अनुभव करता है। वेदांत विज्ञान की समस्त साधनाएं, सोऽहम् तत्वमसि, सर्वखिल्विदं ब्रह्म, अयमात्मा ब्रह्म के सिद्धान्त पर टिकी हुई है। आत्म से ही परमात्मा का दर्शन करना, हृदय को परमात्मा की क्रीड़ा भूमि शरीर को आत्मा का मंदिर अपने को राजाओं के राजा परमात्मा का राजकुमार अनुभव करना आत्मनिष्ठा को बढ़ाने वाले विश्वास हैं। तपश्चर्या की साधनाओं द्वारा मनुष्य आत्मनिष्ठा की ओर बढ़ता है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अनेकों प्रकार की साधनाएँ करते हुए अनेक साधक देखे जाते हैं।
(4) शक्ति साधना— संसार में सुखपूर्वक रहने के लिए शक्ति की अनिवार्य आवश्यकता है। स्वर्ग, मुक्ति, आत्म, साक्षात्कार, ईश्वर प्राप्ति आदि आध्यात्मिक संपदाएं भी पुरुषार्थी, शक्ति संपन्न साधकों को ही मिलती हैं। अपना आत्मिक और भौतिक अस्तित्व कायम रखने, अपने अधिकारों की रक्षा करने तथा आवश्यक वस्तुएं प्राप्त करने के लिए शक्ति की अनिवार्य आवश्यकता है। साधक शक्ति की उपासना करते हैं और उसे शिव का अभिन्न अंग मानते हैं। दुर्गा, राधा, सीता लक्ष्मी, सरस्वती पार्वती आदि रूपों में साधक भगवती शक्ति की शरण में जाता है। शाक्त सम्प्रदाय एक आध्यात्मिक समुदाय है जो शक्ति को ही परमात्मा मान कर उसकी उपासना करता है। ईश्वर के साथ प्रकृति या माया का अनंत संबंध है। इसी से परमात्मा को लक्ष्मी नारायण सीताराम, राधेश्याम नामों से पुकारते हैं।
निरोगता, स्वास्थ्य की शक्ति प्राप्त करने के लिए नेति, धौती, वस्ति कपालभाति, वज्रोली, आसन प्राणायाम किये जाते हैं। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन रहता है उस सर्वमान्य सिद्धान्त के अनुसार योगी जन निरोगता और सरलता को सर्वप्रथम महत्व देते हैं और इसके लिए अनेक ऐसी साधनाएं करते हैं जिससे शरीर निरोग एवं सुदृढ़ रहे। अनेक साधनाएं दृष्टिगोचर होती है उनमें कुछ साधनायें मन की स्वस्थता के लिए हैं। योग कर्मकाण्ड शरीर के साथ मन को भी स्वस्थ बनाता है।
योगी जन बुद्धि बल प्राप्त करते योग विद्या पढ़ते और सत्संग करते हैं। क्रोध को काटने के लिए फरसा, कृपाण आदि धारण करते हैं। गौ सेवा में प्राप्ति का रहस्य छिपा हुआ है। मंत्र, तंत्र, मैस्मरेजम, हिप्नोटिज्म आदि आत्मिक पुरुषार्थ के आयुध हैं। योग साधना एक प्रकार का आध्यात्मिक व्यायाम ही तो है जिसके द्वारा साधन शक्ति संपन्न होकर ऋद्धि सिद्धि प्राप्त करते हैं और अभीष्ट लक्ष तक पहुँचता है। साधनाएं किसी न किसी शक्ति को प्राप्त करने के लिए ही की जाती हैं।
(5) संयम— मनुष्य का शरीर और मन अतुलित शक्तियों का भंडार है इस भंडार का अधिकांश भाग अनुपयोगी एवं निरर्थक बातों में खर्च होता रहता है इस प्रवाह को उधर से रोक दिया जाय तो बचत का संचय होने लगता है। इस संचय को उपयोगी दिशा में लगा दिया जाय तो अनेक प्रकार की सफलताएं सहज उपलब्ध हो जाती हैं और उन्नति के शिखर की ओर यात्रा बड़ी तीव्र गति से बढ़ती चली जाती है।
इन्द्रियों का चटोरापन शक्तियों का सबसे बड़ा अपव्यय करता है इन्द्रियों में स्वादेन्द्रिय और कामेन्द्रिय यह दो सब से प्रबल हैं। इनके द्वारा होने वाले शक्तियों के घोर अपव्यय को रोकने के लिए ब्रह्मचर्य पालन की साधना की जाती है। अस्वाद व्रत लेकर चटोरेपन पर काबू करते हैं। मौन व्रत से वाचालता असत्य भाषण निरर्थक भाषण पर संयम करते हैं। समय समय पर अन्य प्रतिबंध अपने ऊपर लगाकर कठोर कष्ट सहिष्णुता का अभ्यास किया जाता है। सर्दी, गर्मी, नींद, भूख, प्यास आदि। कठोर शक्ति प्राप्त करने के लिए शीत स्नान, रात्री जागरण निराहार, निर्जल उपवास किये जाते हैं। शय्या त्याग कर भूमि शयन करने से भी कष्ट सहिष्णुता का अभ्यास होता है। वह क्षणभर में यहां से वहां तक दौड़ पर नियंत्रण करने के लिए कई प्रकार की साधनाएं की जाती हैं। मंत्रों का जप, इष्ट देव का ध्यान, कानों में रुई या उंगली लगाकर अनहद नाद का श्रवण, किसी वस्तु पर दृष्टि जमाकर देखने का त्राटक, व्रत्याहार धारण, ध्यान, समाधि, शिथिलीकरण मुद्रा, खेचरी मुद्रा, षट्चक्र भेदन, सहस्रार भेदन आदि कितने ही मन को एकाग्र करने के साधन हैं। इन साधनों से एकाग्रता मिलती है और फिर एकाग्रता को जिस मार्ग पर भी लगा दिया जाय उसी दिशा में आश्चर्य जनक सफलता उपलब्ध होती है। विचारों का संयम, मन को विचार रहित, निर्विकल्प करके किया जाता है। विचार शून्यता की स्थिति में चित्त को बड़ा हलकापन अनुभव होता है।
(6) आत्म विचार— अपने ‘अहम्’ का दायरा संकीर्ण, संकुचित न रखकर बहुत में, सब में, अपने को घुला देना आत्मविस्तार कहा जाता है। सब प्राणियों को अपने में और अपने को सब प्राणियों को देखने की साधना आत्म विस्तार के लिए की जाती है। अद्वैत भाव यही है। अपने को अलग सत्ता न मानकर समाज का एक अंग मात्र मानना समाज के हित अनहित में अपना अनहित देखना, विश्वात्मा में परमात्मा में अपने को घुला देना, यही आत्म विस्तार का दृष्टिकोण है।
ऐसे व्यक्ति अपने कामों को लोकसेवा के साथ जोड़ देते हैं, उनके हर एक काम में लोक कल्याण की प्राथमिकता रहती है। शरीर यात्रा के लिए वे जीविका उपार्जन करते हैं पर उसमें इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि समाज का रत्ती भर भी अहित करके वह जीविका न कमाई गई हो। उनकी विचार प्रणाली और कार्यप्रणाली में लोकहित को सर्वोपरि स्थान मिलता है। अपनी शारीरिक मानसिक, बौद्धिक, आर्थिक आत्मिक शक्तियों का अधिकाधिक भाग वे लोक कल्याण में लगाते हैं। “वसुधैव कुटुम्बकम्” उनकी मान्यता होती है। सबको वे अपना कुटुम्बी मानकर उनसे प्रेम करते हैं, लोगों के हित के लिए सुख के लिए, सुधार के लिए, कल्याण के लिए उन्हें सदा इच्छा बनी रहती है। दूसरों के लाभ में वे अपना लाभ और दूसरों की हानि में अपनी हानि देखते हैं।
चरक, सुश्रूत वाग्भट्ट, अश्विनीकुमार, आदि योगी जीवन भर चिकित्सा शास्त्र की शोध में लगे रहे, नागार्जुन ने रसायन क्रिया की शोध की, आर्यभट्ट आदि ने खगोल विद्या की शोध की, पाणिनी ने व्याकरण रचा, व्यास जी ने पुराण बनाये, नारदजी संगीत के, द्रोणाचार्य, विश्वामित्र परशुराम आदि शास्त्र विद्या के आचार्य थे, वात्स्यायन ने काम शास्त्र शोध की। इसी प्रकार अनेकों योगीजन लोककल्याण के लिए निरन्तर लगे रहते थे जो वैज्ञानिक अन्वेषणों द्वारा तथा अनेक प्रकार के अन्य कार्यों द्वारा जनता जनार्दन के लिए उपयोगी कार्य किया करते थे। नालंदा, तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय उनके द्वारा चलाए जाते थे जिनमें देश देशांतरों के छात्र विविध प्रकार की शिक्षाएं प्राप्त करने के लिए आया करते थे। इस प्रकार की लोक सेवा को कितने ही योगियों ने अपनी साधना बना लिया था। दधीचि ऋषि ने तो लोक कल्याण के लिए अपनी हड्डियां तक दे दीं।
दान देना, नित्य देना, भारतीय संस्कृति की विशेषता है। इस देश में एक से एक बड़े दानी हुए हैं। दान का आधार त्याग, परोपकार, सेवा, लोक कल्याण है। यह आत्म विस्तार की है। इस साधना में अगणित साधकों को लगे हुए हम देखते हैं।
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(7) ब्रह्मपरायणत— आत्मा का प्रधान गुण सत् है। सतोगुण ब्रह्म का ही प्रतिबिम्ब है। दया, करुणा, वात्सल्य स्नेह सहृदयता, आत्मीयता, उदारता, सेवा सहायता आदि सतोगुणी स्वभाव ब्राह्मी स्थिति में जाकर बनते हैं। मूढ़ता एवं अहंकार के तम रज में ऊपर उठकर प्रेम के भक्ति क्षेत्र में जब मनुष्य प्रवेश करता है तो उसे ब्रह्म का साक्षात्कार होने लगता है। आत्मा की वाणी सुनना और उस ईश्वरीय आज्ञा के अनुसार अपने विचार और कार्यों को बना लेना, सच्चा ईश्वर आराधन है। ऐसे सच्चे भक्तों को अन्तःकरण में बैठा हुआ परमात्मा अपनी शरण में लेता है और उन पर अपार अध्यात्मिक आनन्द की वर्षा करता है। यह परस्पर संतोष का प्रत्यक्ष आदान प्रदान ही ब्रह्म परायणता है। जीव आत्मा को संतुष्ट करता है, आत्मा जीव को संतुष्ट करती है। यहीं आत्मा और परमात्मा का मिलन हो जाता है।
गीता में भगवान ने अर्जुन को अपना विराट् रूप दिखाते हुए बताया है कि यह समस्त विश्व मेरा ही रूप है। जो व्यक्ति उस विराट् रूप दर्शन की भावना को अपना लेता है वह उसी लाभ को प्राप्त करता है जो भगवान द्वारा विराट् रूप दिखाए जाने पर अर्जुन को प्राप्त हुआ था। यह विश्व भगवान का रूप है, इसलिए भगवान की जिस भाव से पूजा की जानी चाहिए उसी भाव का व्यवहार संसार के प्राणियों के साथ हमारा होना चाहिए। सर्वश्रेष्ठ चित्रों को मात कर देने वाला संसार का सौंदर्य सच्चे भक्त को हर घड़ी प्रसन्नता प्रदान करता है। अपने चारों ओर भगवान का फैला हुआ सौंदर्य देखकर वह परम सन्तोष, आनन्द तथा प्रसन्नता का अनुभव करता रहता है। यही परमानन्द की प्राप्ति है। इस परमानन्द को अनेकों साधक अनेक साधनाओं द्वारा प्राप्त करते हैं।
विभिन्न सम्प्रदायों में असंख्य प्रकार की अगणित साधनाएं हैं। उन समस्त साधनाओं का उद्देश्य मनुष्य की अन्तःभूमि में उपरोक्त सात संस्कार जमाना है। जब यह संस्कार जम जाते हैं तब इन साधनाओं की आवश्यकता पूरी हो जाती है।
(लेखक गायत्री परिवार प्रमुख और हरिद्वार की देव संस्कृति विश्व विद्यालय के कुलाधिपति हैं)