भाद्रपद शुक्ल पंचमी को ऋषि पंचमी कहते हैं। इस दिन महिलाएं व्रत करती है। इस व्रत में हल से जोते हुए खेत से उत्पन्न होनी वाली समस्त वस्तुएं वर्जित मानी जाती हैं, इसलिए फलाहार के रूप में भी जोते हुए खेत की वस्तुओं को नहीं खाना चाहिए और केवल वे ही पदार्थ काम में लाना चाहिए, जो बिना जोते-बोए स्वयमेव उत्पन्न होते हैं। जैसे-साठी का चावल, नारी (करमुआ) का शाक आदि।
यह व्रत अशुद्धाचार के दोषों को मिटाने के लिए किया जाता है। इस दिन प्रातःकाल किसी नदी या सरोवर पर जाकर विधिपूर्वक स्नान करना चाहिए। घर में रंग-बिरंगा सर्वतोभद्र मंडल बनाकर सप्त ऋषियों की पूजा करें। सब सामग्री दक्षिणा के समय आचार्य को दे दें और स्वयं ऋषि अन्न का भोजन करें। इस व्रत के संबंध में कई कथाएं कही जाती हैं। उनमें से एक भविष्योत्तर पुराण में दी गई कथा संक्षेप में इस प्रकार है-
सतयुग में वेद-वेदांग जानने वाला सुमित्र नाम का ब्राह्मण अपनी स्त्री जयश्री के साथ रहता था। वे खेती करके जीवन-निर्वाह करते थे। उनके पुत्र का नाम सुमति था, जो पूर्ण पंडित और अतिथि-सत्कार करने वाला था। समय आने पर संयोगवश दोनों की मृत्यु एक ही साथ हुई। जयश्री ने कुतिया का जन्म पाया। उसका पति सुमित्र बैल बना। भाग्यवश दोनों अपने पुत्र सुमति के घर ही रहने लगे। एक बार सुमति ने अपने माता-पिता का श्राद्ध किया। उसकी स्त्री ने ब्राह्मण भोजन के लिए खीर पकाई, जिसे अनजाने में एक सांप ने जूठा कर दिया।
कुतिया इस घटना को देख रही थी। उसने यह सोच कर की खीर खाने वाले ब्राह्मण मर जाएंगे, स्वयं खीर को छू लिया। इस पर क्रोध में आकर सुमति की स्त्री ने कुतिया को खूब पीटा। उसने फिर सब बर्तनों को स्वच्छ करके दुबारा खीर बनाई और ब्राह्मणों को भोजन कराया और उसका जूठन जमीन में दबा दिया। इस कारण उस दिन कुतिया भूखी रह गयी।
जब आधी रात का समय हुआ तो कुतिया बैल के पास आई और सारा वृतान्त सुनाया। बैल ने दुःखी होकर कहा- ‘आज सुमति ने मुंह बांधकर मुझे हल में जोता था और घास तक चरने नहीं दिया। इससे मुझे भी बड़ा कष्ट हो रहा है।’ सुमति दोनों की बातें सुन रहा था और पशु-पक्षियों की भाषा समझ सकने के कारण उसे मालूम पड़ गया कि कुतिया और बैल हमारे माता-पिता हैं। उसने दोनों को पेट भर भोजन कराया और ऋषियों के पास जाकर माता-पिता के पशु योनि में जन्म लेने का कारण और उनके उद्धार की विधि पूछी, ऋषियों ने उनके उद्धार के लिए ऋषि पंचमी का व्रत रहने का आदेश दिया।
ऋषियों की आज्ञा के अनुसार सुमति ने विधिपूर्वक श्रद्धा के साथ ऋषि पंचमी का व्रत किया, जिसके फल से उसके माता-पिता पशु योनि से छूट गए। इस कथा से हमें यह शिक्षा मिलती है कि ऋषियों ने जिस त्याग-तप के द्वारा मानव मात्र के कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया था, उनके उस योगदान के प्रतिकृतज्ञ रहकर उनके द्वारा बताये गये मार्ग पर चलें और अपने जीवन को धन्य बनाएं- मानवता के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकें।
-डॉ प्रणव पंड्या/शांतिकुंज, हरिद्वार