एक बार स्वामी दयानंद सरस्वती फर्रुखाबाद में गंगा तट पर रुके हुए थे। उन्होंने तट पर ही अपने लिए एक छोटी-सी कुटिया बनाई थी। उनके साथ उनके शिष्य भी थे। उस कुटिया से थोड़ी ही दूरी पर एक दूसरे साधु ने भी अपनी कुटिया बनाई हुई थी। वह स्वामी जी से बिना किसी कारण द्वेष रखता था। वह रोज स्वामी जी की कुटिया के पास आकर उन्हें गालियां दिया करता था। पर स्वामी जी उसकी किसी भी गाली का जवाब नहीं देते थे। इससे वह साधु थक हारकर वापस अपनी कुटिया में चला जाया करता था।
एक दिन स्वामी जी के किसी शिष्य ने उन्हें फलों से भरा एक टोकरा भेंट किया। स्वामी जी ने उस टोकरे में से कुछ फल निकालकर एक पोटली बनाई और अपने एक शिष्य से बोले, ‘जाओ उस साधु को ये फल देकर आओ।’ जब उनका शिष्य वह फल लेकर उस साधु के पास पहुंचा और साधु से कहा कि ये फल स्वामी जी ने आपके लिए भेजे हैं, तो वह क्रोध से पागल हो गया और उनके शिष्य से बोला, ‘तुमने सुबह-सुबह किस मनहूस का नाम मेरे सामने ले लिया। यहां से तुरंत चले जाओ।’ यह सुनकर शिष्य स्वामी जी के पास लौट आया। उसने स्वामी जी को उस साधु की सारी बातें बता दीं।
इस पर स्वामी जी ने अपने शिष्य से कहा, ‘वापस जाओ और उस साधु से यह कहो कि ये फल इसलिए भिजवाए गए हैं कि आप जो अमृत वचन हमारी कुटिया पर आकर देते हैं, उससे आपकी काफी ऊर्जा नष्ट हो जाती है। ये फल आपकी ऊर्जा को बनाए रखेंगे, जिससे कि हमें आपके अमृत वचनों से वंचित न होना पड़े। स्वामी जी के शिष्य ने जब यह संदेश उस साधु तक पहुंचाया तो वह काफी शर्मिंदा हुआ। उस साधु ने स्वामी जी के पास जाकर अपने व्यवहार के लिए उनसे माफी मांगी।
संकलन: मुकेश शर्मा