बड़े पद पर होते हुए भी साइकिल में हवा भरवाने के नहीं थे, ऐसी है कांशीराम की कहानी

कांशीराम सरकारी सेवा में कार्यरत दलितों को संगठित कर रहे थे। उन दिनों उन्हें मनोहर आटे का साथ मिला। आटे रेलवे में नौकरी करते थे और उनका पूना से मुंबई आना-जाना होता था। कांशीराम ने भी पूना-मुंबई का पास बनवा लिया था। उनका कार्यालय पूना स्टेशन से 15 किलोमीटर दूर था। वहां से वह साइकिल से पूना स्टेशन आते, फिर वहां से महालक्ष्मी एक्सप्रेस पकड़कर मुंबई आ जाते। लोगों से मिलते उन्हें अपनी कार्य योजना बताते और शाम को वही ट्रेन पकड़कर पूना वापस आते। सस्ता खाना देने वाले वंदना होटल में खाना खाते, फिर साइकल से कार्यालय पहुंचते और चटाई बिछाकर सो जाते। उनके साथ आटे भी होते।

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उस दिन कांशीराम वंदना होटल नहीं गए। आटे को पता था, कभी थोड़ा अच्छा खाने की इच्छा होती तो वह न्यू यार्क होटल जाते। वह भी उधर ही चल पड़े। दोनों की साइकिलें न्यू यार्क होटल के सामने रुकीं। दोनों ने एक-दूसरे को देखा, किसी ने अंदर चलने के लिए नहीं कहा। दोनों समझ गए कि किसी के पास पैसे नहीं हैं। बिना कुछ कहे दोनों लौट पड़े। पंद्रह किलोमीटर का रास्ता दोनों ने चुपचाप खाली पेट तय किया। दफ्तर पहुंचे और पानी पीकर सो गए। दूसरे दिन छुट्टी थी। आटे को मुंबई नहीं जाना था इसलिए वह सोए रहे।

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कुछ कार्यकर्ता छुट्टी के दिन मिलते थे इसलिए कांशीराम के लिए मुंबई जाना जरूरी था। वह उठे और तैयार हो गए। साइकिल निकाली तो देखा पिछले चक्के में हवा नहीं है। तब हवा भराने में पांच पैसे लगते थे, वह भी नहीं था। कांशीराम को महालक्ष्मी एक्सप्रेस पकड़नी थी। वह दौड़ते हुए स्टेशन की तरफ चल पड़े। जब तक आंखों से ओझल नहीं हो गए, आटे उन्हें देखते रहे और सोचते रहे कि चाय और नाश्ता तो कार्यकर्ताओं के पूछने पर ही नसीब होगा। यह समर्पण, संकल्प और त्याग था संगठन खड़ा करने का।– संकलन : हरिप्रसाद राय