कृष्ण ने कहा, ‘तुम प्रतिशोध लेना चाहती थी, तुम्हारा प्रतिशोध पूरा हुआ। दुर्योधन और दु:शासन ही नहीं, सारे कौरव समाप्त हो गए, तुम्हें तो प्रसन्न होना चाहिए।’ द्रौपदी बोलीं, ‘तुम मेरे घावों पर नमक क्यों छिड़क रहे हो?’ कृष्ण बोले, ‘मैं तो तुम्हें वास्तविकता से अवगत कराने आया हूं। हम अपने कर्मों के परिणाम को दूर तक नहीं देख पाते। जब वे हमारे सामने होते हैं तो हमारे हाथ में कुछ नहीं होता।’ द्रौपदी बोलीं- तो क्या इस युद्ध के लिए पूर्ण रूप से मैं ही उत्तरदायी हूं। कृष्ण बोले- नहीं, तुम स्वयं को इतना महत्वपूर्ण मत समझो। पर यदि तुम अपने कर्मों में थोड़ी सी दूरदर्शिता रखती तो इतना कष्ट न पाती। द्रौपदी ने पूछा, ‘मैं क्या कर सकती थी?’
कृष्ण बोले, ‘जब तुम्हारा स्वयंवर हुआ तब तुम कर्ण को अपमानित नहीं करती, उसे प्रतियोगिता में भाग लेने देती। जब कुंती ने तुम्हें पांच पतियों की पत्नी बनने का आदेश दिया तो तुम उसे स्वीकार न करती। तुमने अपने महल में दुर्योधन को अंधे का पुत्र अंधा कहकर अपमानित किया तो तुम्हारा चीर हरण हो गया। तुम यह सब न करती तो परिस्थिति कुछ और ही होती। द्रौपदी! हमारे शब्द ही हमारे कर्म होते हैं। शब्दों का प्रयोग सोच-समझकर करना चाहिए।’ द्रौपदी कुछ न बोल सकीं।– संकलन : रमेश जैन