पुलिस स्टेशन की औपचारिकता पूरी होने के बाद उन्हें लाहौर के मैजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया। मैजिस्ट्रेट अंग्रेज था। नाम था एम.एल. फरार। उसने पहले से ही फैसला तैयार कर रखा था। गोरा होने के नाते एक अन्य गोरे से उसे कोई सहानुभूति नहीं थी। उसने कहा, ‘आपको दस हजार रुपये अदालत में जमा करने होंगे। यह राशि अच्छे चाल-चलन की गारंटी होगी। बाद में आपका रवैया ठीक रहा तो फिर से गिरफ्तार नहीं किया जाएगा। पैसा नहीं जमा करने पर छह महीने का कारावास।’ सजा सुनने वाला यह खद्दरधारी कोई और नहीं, अमेरिकी नागरिक सैमुएल स्टोक्स थे। उन्होंने जुर्माना भरने से इनकार कर दिया।
वह फिलाडेल्फिया से शिमला के कुष्ठ रोगियों की सेवा करने आए थे। जलियांवाला बाग हत्याकांड से आहत होकर वह गांधीवादी बने। 31 जुलाई 1921 को परेल, बॉम्बे में सार्वजनिक रूप से अपने कपड़ों की होली जलाई, खादी पहना और असहयोग आंदोलन में शामिल हुए। यह घटना बताती है कि अन्याय, अत्याचार और जुल्म के विरोध का जज्बा जाति, धर्म या राष्ट्र की सीमाएं नहीं देखता। इंसाफ का आग्रह इंसानियत का तकाजा है। सैमुएल स्टोक्स ने सिर्फ अंग्रेजों का विरोध ही नहीं किया। उन्होंने कोटगढ़ में गरीबों के लिए स्कूल खोला, किसानों की आर्थिक दशा सुधारने पर काम किया। उन्होंने जरूरतमंदों की सेवा को ही अपना धर्म माना।– संकलन : हरिप्रसाद राय