बिहार के भागलपुर में 18 जुलाई 1861 को जन्मी कादंबिनी बसु पेशे से डॉक्टर बनना चाहती थीं, लेकिन उस वक्त स्त्रियों की शिक्षा-दीक्षा इतनी आसान न थी। काफी संघर्षों के बाद वे द्वारकानाथ गंगोपाध्याय हिंदू महिला विद्यालय में पढ़ने गईं। 1883 में वे भारत की पहली ग्रेजुएट महिला तो बनीं, लेकिन डॉक्टरी का सपना अभी भी सपना ही था। इसी बीच उसी विद्यालय के शिक्षक द्वारकानाथ गांगुली से उनकी शादी हो गई। द्वारकानाथ विधुर थे। उनके पांच बच्चे पहले से ही थे।
कादंबिनी बच्चों के लालन-पालन में लगीं। कुछ समय बाद उनके भी तीन बच्चे हुए। इसी बीच कॉलेज में उनके साथ पढ़ने वाली उनकी मित्र सरला की बहन अबला ने लड़कियों के लिए मेडिकल की पढ़ाई करने का अधिकार तत्कालीन अंग्रेज सरकार से हासिल किया, तो वह अपने आठों बच्चों को बिधुमुखी के पास छोड़कर उच्च मेडिकल शिक्षा के लिए विदेश चली गईं। वहां उन्होंने जनरल मेडिसिन और सर्जरी में तीन डिग्रियां हासिल कीं। डिग्री लेने के बाद वे वापस भारत आईं तो समाज उन्हें बतौर डॉक्टर स्वीकार नहीं कर रहा था। उन्होंने प्रैक्टिस शुरू की तो उस समय ‘बंगवासी’ पत्रिका के संपादक महेशचंद्र पाल ने लिखा कि वे घरेलू न होकर स्वेछाचारिणी हैं, जिनका मन घर-गृहस्थी और बच्चों में नहीं लगता है। उनके लिए अपशब्द कहे।
इस पर कादंबिनी ने उन पर मुकदमा किया। पाल बाबू पर सौ रुपये जुर्माना लगा, साथ ही छह महीने जेल में काटने पड़े। उस जमाने में किसी स्त्री द्वारा किसी सुविधासंपन्न संपादक पर मानहानि का मुकदमा करना कतई आसान न था, जीतना तो और भी मुश्किल था। मगर कादंबिनी ने मुकदमा जीतकर ही दम लिया। अमेरिकी इतिहासकार डेविड कोफ उनके बारे में लिखते हैं, ‘कादंबिनी अपने समय की सबसे स्वतंत्र ब्रह्म महिला थीं और बंगाल की अन्य ब्रह्म तथा ईसाई महिलाओं से बहुत आगे थीं।’
संकलन : सुलोचना वर्मा