वैद्य जी ने कहा, ‘मैंने तो तुम्हें दवाई का नाम लिखकर सब समझाया था।’ तब व्यक्ति ने कहा, ‘हां वैद्य जी, ईंट तो मेरे घर के आस-पास भी थी लेकिन उस पर आपने जो लिखा था वह लिख दीजिए।’ वैद्यजी ने जब उससे पूरी बात पूछी तो उसने बताया कि, ‘आपने जो ईंट दी थी उसे मैं पानी में घोलकर पी रहा हूं, और मुझे आराम है। ईंट पर लिखा हुआ आपका मंत्र काम कर रहा है।’ वैद्य जी आश्चर्यचकित हुए लेकिन उन्होंने उस व्यक्ति को सच्चाई बताना ठीक नहीं समझा क्योंकि वह ईंट उस व्यक्ति के लिए दवाई से बेहतर काम कर रही थी। वैद्य जी ने एक और दूसरी ईंट लीं और कोयले से उस पर उसी दवाई का नाम लिखकर उसे दे दिया। कुछ माह बाद वह व्यक्ति पूरी तरह से ठीक हो गया। वैद्य और उसकी दवा पर बिना किसी शंका के सौ प्रतिशत यकीन ने ही उस व्यक्ति का असाध्य रोग छूमंतर कर दिया।
तन-मन: दोनों स्तर पर उपचार आवश्यक
व्यक्ति के विश्वास, भावना एवं विचार से उसका स्वास्थ्य प्रभावित होता है। मन ही रोग और आरोग्य का जनक है, अधिकांशतः रोग का मूल कारण रोगी की मनोदशा ही होती है। तन बीमार है तो उसका इलाज संभव है परंतु मन के बीमार होने पर उसका खामियाजा पूरे व्यक्तित्व को चुकाना पड़ता है। तन एवं मन दोनों का इतना गहरा संबंध है कि एक के अभाव में दूसरे का पूर्ण स्वस्थ रहना कठिन ही नहीं असंभव है।
तन-मन की एकरूपता
दृश्य संसार में प्रकट होने से पहले हर चीज अदृश्य अथवा मानसिक संसार में प्रकट होती है। रोग पहले मन में उत्पन्न होता है, फिर तन में इसलिए अनादिकाल से मन को स्वस्थ रखने के लिए पूजा, पाठ, प्रार्थना, दान, पुण्य कर्मों को करने का विधान है। जीवन शक्ति के विकास के लिए शरीर को भोजन और मन को भयमुक्त सकारात्मक चिन्तन की आवश्यकता पड़ती है। जब तन और मन दोनों का उपचार एक साथ होता है तो व्यक्ति पूर्ण रूप से स्वस्थ एवं दीर्घ जीवन प्राप्त करता है। जीवन तथा स्वास्थ्य को हर प्रकार से संतुलित एवं पूर्ण बनाने के लिए शारीरिक एवं मानसिक एकरूपता अनिवार्य है।
ज्योतिषाचार्य आशुतोष वार्ष्णेय ग्रह नक्षत्रम् प्रयागराज