महर्षि रमण के इन शब्दों से ही अध्यापक ने आत्महत्या करने का विचार त्याग दिया

महर्षि रमण के आश्रम के नजदीक एक गांव में एक अध्यापक रहता था। उसके पास गांव और आसपास के काफी बच्चे पढ़ने के लिए आते थे। वह उन बच्चों को बुजुर्गों का सम्मान करने और घर में प्यार से रहने की शिक्षा देता था। लेकिन अध्यापक ही अपने घर में आए दिन की पारिवारिक कलह से परेशान था। आखिर उसने रोज-रोज की पारिवारिक कलह से छुटकारा पाने के लिए आत्महत्या करने की सोची। लेकिन आत्महत्या का निर्णय लेना इतना आसान नहीं था। मनुष्य को अपने परिवार के भविष्य की ओर भी ध्यान देना होता है। इसी ऊहापोह में पड़ा वह व्यक्ति महर्षि रमण के आश्रम में पहुंचा।

अध्यापक ने उन्हें प्रणाम किया और अपनी परेशानी बताने के बाद आत्महत्या के बारे में उनकी राय जाननी चाही। महर्षि उस समय आश्रम में रहने वाले लागों के भोजन के लिए बड़ी सावधानी से पत्तल बना रहे थे। वह चुपचाप अध्यापक की बातें सुनने लगे। जब उसने अपनी पूरी बात बताई तो महर्षि कुछ देर चुप रहे। अध्यापक ने सोचा कि शायद निर्णय लेने में स्वामीजी को विलंब हो रहा है। इस बीच पत्तल बनाने में स्वामीजी जिस मनोयोग से जुटे थे, उसे देखकर वह थोड़े आश्चर्य में पड़ा। कुछ देर खुद को रोके रखा, लेकिन आखिर पूछ ही लिया, ‘भगवन! आप इन पत्तलों को इतने परिश्रम से बना रहे हैं, लेकिन भोजन के बाद ये कूड़े में फेंक दी जाएंगी।’

महर्षि मुस्कराते हुए बोले, ‘आप ठीक कहते हैं, लेकिन किसी वस्तु का पूरा उपयोग हो जाने के बाद उसे फेंकना बुरा नहीं। बुरा तो तब कहा जाएगा, जब उसका उपयोग किए बिना अच्छी अवस्था में ही कोई फेंक दे। आप तो सुविज्ञ हैं, मेरे कहने का आशय समझ गए होंगे।’ इन शब्दों से अध्यापक महोदय की समस्या का समाधान हो गया। उस परिस्थिति में भी उनमें जीने का उत्साह आ गया और उन्होंने आत्महत्या करने का विचार त्याग दिया।– संकलन : सुभाष चन्द्र शर्मा