संकलन: त्रिलोक चन्द जैन
उन दिनों महात्मा बुद्ध वैशाली में विराजमान थे। दूर-दूर से चलकर लोग उनके दर्शन के लिए आते थे। इस तरह काफी संख्या में महात्मा बुद्ध को सुनने वालों की मंडली जम जाती थी। उन्हीं दिनों की बात है। वैशाली की नगरवधू आम्रपाली भी उनके दर्शन के लिए पहुंची। आम्रपाली उनके उपदेश सुनकर बहुत प्रभावित हुई। उसके मन में भी साधना करने की भावना उमड़ने लगी।
वह बुद्ध से कहने लगी, ‘भगवन! मैं साधना करना चाहती हूं, पर सबसे बड़ी दुविधा समय की है। मेरे पास समय का अभाव है। हे कृपानाथ! यदि मेरे लिए आप ही भक्ति साधना करने का कष्ट करें तो आपकी बहुत कृपा होगी।’ यह सुनकर बुद्ध कुछ देर तक चुप रहे फिर बोले, ‘आम्रपाली, तुम एक काम करना। जितने दीपक प्रतिदिन तुम्हारे महल में जलाए जाते हैं, आज से उनकी संख्या पांच गुना बढ़ा देना।’ यह सुनकर आम्रपाली बोली, ‘इससे क्या होगा प्रभु?’ बुद्ध ने कहा, ‘इससे यह होगा कि तुम्हारे महल की रोशनी इस उद्यान में पहुंच जाएगी।’ आम्रपाली ने कहा, ‘भंते, लेकिन यह संभव कैसे होगा? मेरा महल तो इस उद्यान से काफी दूर है। बीच में इतने मकान आदि हैं कि मेरे महल की रोशनी यहां तक बिल्कुल नहीं पहुंच सकती। अत: यह काम व्यर्थ लगता है।’
बुद्ध ने आम्रपाली को समझाते हुए कहा, ‘तुमने यह बात बिल्कुल सही पकड़ी। तुम्हारे महल के दीपकों की रोशनी इस उद्यान तक नहीं पहुंच सकती। तुम्हारे महल से इस उद्यान तक उन दीपकों की रोशनी के पहुंचने में ढेर सारी बाधाएं हैं। यह तुम भी जानती हो, तो यह बताओ कि मेरी साधना की रोशनी तुम तक कैसे पहुंच सकती है। तुम्हें यह भी पता होगा कि जो भोजन करेगा, उसी का पेट भरेगा। इसी प्रकार जान लो, जो साधना करेगा उसी को सिद्धि मिलेगी। बिना स्वयं के पुरुषार्थ के साधना नहीं की जा सकती।’ बात आम्रपाली की समझ में आ गई।