संकलन: स्वाति आहूजा
बात 1902 की है। अल्बर्ट आइंस्टाइन ने स्विट्जरलैंड के शहर बर्न के पेटेंट ऑफिस में बतौर क्लर्क काम शुरू किया। ऑफिस में तकनीकी आविष्कारों का लेखा-जोखा रखा जाता था। कोई नया इंजन बनाता, कोई कल-पुर्जा बनाता या कोई नया रसायन बनाता तो वह बर्न के इस दफ्तर में अपने आविष्कार का नमूना जरूर भेजता। इसके बाद वह ऑफिस उसके आविष्कार की जांच करता और अगर नया आविष्कार जांच में पास होता तो उसे सर्टिफिकेट दे दिया जाता। वहां आविष्कारों के साथ आने वाली चिट्ठियों को पढ़कर कागजात तैयार करने की जिम्मेदारी 22-23 साल के युवक आइंस्टाइन की थी।
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इस नौकरी पर पहले भी कई वैज्ञानिक काम करने के लिए आते, लेकिन जल्द ही सभी यह काम छोड़कर भाग जाते। भागने वाले वैज्ञानिकों का कहना था कि वैज्ञानिक का काम बाबूगिरी करना नहीं होता। इसके उलट आइंस्टाइन किसी भी काम को छोटा नहीं समझते थे। हालांकि यह काम उनके लिए भी काम बहुत आसान नहीं था, लेकिन उनकी सुख की कल्पना ही निराली थी। अक्सर वे कहते कि सुख की कल्पना का उनके लिए कोई अर्थ नहीं है। हर परिस्थिति को अपने अनुकूल मान लेना उनका स्वभाव बन चुका था।
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ऐसे ही कागजात बनाते-बनाते आइंस्टाइन ने पहले प्रकाश-विद्युत प्रभाव की खोज की, जिसके लिए उन्हें 1921 की भौतिकी का नोबेल पुरस्कार भी मिला। कागजात बनाते हुए आइंस्टाइन ने E= mc2 का सूत्र भी तलाशा। इस नौकरी के बारे में उन्होंने कहा है कि इस तरह का प्रैक्टिकल काम उनके लिए वरदान साबित हुआ, क्योंकि वैज्ञानिक अनुसंधान अक्सर वैज्ञानिकों को बाकी दुनिया से विलग कर देते हैं, जिससे उनकी गहराई का पता नहीं चलता। आइंस्टाइन ने यह भी कहा कि हर वैज्ञानिक को मोची का काम जरूर करना चाहिए, क्योंकि थियरी कैसी भी हो, उसे प्रैक्टिकल करके ही प्रूव करना होता है। आइंस्टाइन ने यह भी प्रूव किया कि कोई भी काम छोटा-बड़ा नहीं होता।