अलकनंदा और पिंडर नदी के संगम पर मंदिर
कर्णप्रयाग में अलकनंदा और पिंडर नदी के संगम पर स्थित है मां उमा देवी का मंदिर। यह पौराणिक मंदिर है। कई सारी मान्यताएं और परंपराएं जुड़ी हैं इस मंदिर से। मान्यता है कि मां उमा के इस मंदिर की स्थापना से ही इस तीर्थ स्थान का नाम कर्ण प्रयाग पड़ा। इसके पीछे पिंडर नदी का एक नाम कर्ण गंगा भी होना माना जाता है।
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आठवीं सदी में आदि गुरु ने की थी स्थापना
मान्यता है कि मां भगवती के इस मंदिर की स्थापना आठवीं सदी में आदि गुरु शंकराचार्य जी ने की थी। वहीं कुछ स्थानीय लोग मानते हैं कि मां उमा की मूर्ति आठवीं सदी से पहले ही स्थापित की जा चुकी थी। यही वजह है कि इस मूर्ति को लेकर कई सारी पंरापराएं भी शुरू की गईं हैं। जिनकी शुरुआत किसने की यह तो इतिहास में कहीं दर्ज नहीं है। लेकिन सदियों बाद भी मंदिर संबंधी परंपराओं का निर्वहन जारी है।
डिमरी ब्राह्मण को सपने में दिया था मां ने दर्शन
स्थानीय निवासियों द्वारा बताई गई जानकारी के मुताबिक मां उमा देवी ने एक डिमरी ब्राह्मण को सपने में दर्शन दिया था। इसके बाद उसे मूर्ति के बारे में बताया जो कि संक्रसेरा के एक खेत में थी। इसके बाद मां ने उस डिमरी ब्राह्मण को आदेश दिया कि उनकी मूर्ति को अलकनंदा और पिंडरी नदी के संगम पर स्थापित किया जाए। मान्यता है इसके बाद उस ब्राह्मण ने मां उमा देवी की मूर्ति को संक्रेसरा के खेत से निकालकर अलकनंदा और पिंडर नदी के संगम पर स्थापित किया।
डिमरियों को मानते हैं मां का मायका
पौराणिक कथाओं के मुताबिक मां उमा देवी की मूर्ति स्थापना के बाद से ही डिमरी ब्राह्मणों को मां के मायके वाला माना जाने लगा। तब से हर साल छह महीने के लिए मां को डोली में बिठाकर यात्रा के लिए लेकर जाते हैं। स्थानीय निवासी बताते हैं यह परंपरा सदियों पहले शुरू हुई थी लेकिन आज भी वह इसका निर्वहन करते हैं।
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एक झलक को लग जाती हैं लंबी कतारें
डिमरी ब्राह्मण कहते हैं मां के मायके वाला होना सौभाग्य की बात है। यही वजह है कि जब मंदिर से मां को छह महीने की यात्रा पर लेकर जाते हैं तो आने की यहां पर खूब खुशी मनाई जाती है। पग-पग पर मां का स्वागत किया जाता है। भक्त फूल-मालाओं और विशेष प्रकार के व्यंजनों से मां की पूजा-अर्चना करते हैं। मां की एक झलक देखने को लंबी कतारें लगती हैं।
मंदिर में लौटती हैं तो होती है पुर्नस्थापना
मां को डोली में बिठाकर हर छह महीने पर यात्रा करवाई जाती है। यानी कि वह अपने मायके आती हैं और उनकी विदाई होती है। जब मां की डोली वापिस अलकनंदा और पिंडरी संगम पर स्थापित मंदिर में पहुंचती है तो पुजारी विधि-विधान से मां उमा देवी की मूर्ति की पुर्नस्थापना करते हैं।
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