जब उन्हें लगा कि किसी समाधान तक पहुंचना मुश्किल है तो उन्हें अपने गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस की याद आई। वे उनके पास पहुंचे। उन्हें पूरी बात बताई। स्वामीजी ने शांत भाव से दोनों की बात सुनी। कुछ देर चुप रहकर स्वामीजी ने सोचा, ये दोनों ही समान प्रतिभा और योग्यता के धनी हैं। वह थोड़ा मुस्कुराए। उनकी मुस्कुराहट देखकर शिष्यों की आतुरता और बड़ गई।
अनिर्णय के सूक्ष्म धागे को एक झटके में तोड़कर स्वामी जी ने अपने शिष्यों को संबोधित करते हुए कहा, ‘इस संसार में बड़ा वह है जो दूसरों को बड़ा मानता है। गुरु मुख से यह सुनकर विवाद का क्रम बदल गया। अब दोनों यह कहने के लिए तैयार हो गए कि मैं बड़ा नहीं हूं। पारस्परिक विद्रोह की सरिता स्वामीजी के वचन रूपी नौका ने पार करा दी। अब दोनों परम प्रसन्नता से अध्ययन और उपासना से जुड़ गए।
स्वामीजी ने विवाद को खत्म करने के लिए दोनों शिष्यों की धारा में न जाकर एक नई राह निकाली। दोनों में किसी एक को बड़ा कहते तो कहीं न कहीं उनके निर्णय पर प्रश्न उठता। यहां स्वामीजी का मानना था कि एक अस्तित्व को दूसरे अस्तित्व में समाहित करने से बुराई से मुक्ति नहीं मिलती, आक्रोश उत्पन्न हो जाता है। हृदय परिवर्तन का सिद्धांत सौम्य है, स्थायी भी है। स्वामीजी ने उनके हृदय परिवर्तन का निदान दिया।
निर्मल जैन