पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
आज का दिन बड़ा ही महत्वपूर्ण हे। आज नवीन समाज के नव निर्माण का महापर्व है। आज शिक्षक दिवस है। शिक्षा एक प्रतिपादन है, उसका मूर्तरूप शिक्षक है। अध्यापक को अपनी गरिमा समझने और चरितार्थ कर दिखाने में परिस्थितियां भी बाधा नहीं पहुंचा सकती। अध्यापकगण अपनी गुरु महिमा को अपने ही बलबूते बनाए रहें और अपने गौरव का महत्व अनुभव करते हुए बढ़ते चलें। अध्यापक के पेशे को इसे केवल वेतन पाने और जीवन निर्वाह का साधन नहीं बनाएं क्योंकि आपके ऊपर संपूर्ण राष्ट्र और समाज की जिम्मेदारी होती है।
sriram sharma acharya
विद्यार्थी अपने समय का महत्वपूर्ण भाग अध्यापकों के साथ रहकर विद्यालयों में गुजारते हैं। उनके प्रति सहज श्रद्धा और कृतज्ञता का भाव भी रहता है। उनके उपकारों को कोई कैसे भुला सकता है? उनसे आयु में ही नहीं, हर हालत में छोटी स्थिति वाले छात्रों पर उनके व्यक्तित्व की छाप पड़नी चाहिए। अध्यापक अपने संपर्क के छात्रों में शालीनता, सज्जनता, श्रमशीलता, समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी, जैसी सत्प्रवृतियों को विकसित करने में कुछ उठा न रखें। इन्हीं प्रयत्नों में निरत रहने वाले शिक्षक समूचे समाज को अपना ऋणी बना सकते हैं। गुरु की गरिमा का निर्वाह चिन्तन, चरित्र, व्यवहार एवं गुण, कर्म, स्वभाव को आदर्श बनाने से होगा।
बच्चों में जीवन-निर्माण की सृजनात्मक प्रवृत्तियां उत्पन्न करने के लिए उन्हें उपयुक्त, अनुकूल साहित्य पढ़ाया जाना चाहिए। पाठ्य पुस्तकों में भी इस प्रकार के उपयोगी पाठों की कमी नहीं रहती है। इसके अतिरिक्त यदि अध्यापक चाहे और प्रयत्न करे तो न केवल साहित्य अथवा भाषा की पुस्तकों से ही बल्कि भूगोल, इतिहास, गणित आदि विषयों को पढ़ाते तथा समझाते समय भी ऐसे सूत्रों तथा पहेलियों का समावेश कर सकते हैं, जो संस्कार सृजन के उद्देश्य में सहायक हो सकें।
किसी भी विषय को किसी भी दिशा में मोड़कर समझाया जा सकता है और ऐसा करना किसी भी विचारशील अध्यापक की क्षमता- परिधि में हो सकता है। तात्पर्य यह है कि कोई भी अध्यापक कोई भी विषय क्यों नहीं पढ़ा रहा हो, उसके समझाते समय शैली में किसी संस्कार के लिए विचारों का पुट दे सकता है। विद्यार्थियों में विषय के प्रति ऊंची भावना जगाते हुए उदात्त मनोवृत्ति का बीज बो सकता है जो कि आगे चलकर किसी भी दिशा में वांछित फल ला सके।
शिक्षा के सम्बन्ध में एक महान सत्य हमने सीखा था। हमने यह जाना था कि मनुष्य से ही मनुष्य सीख सकता है। जिस तरह जल से ही जलाशय भरता है, दीप से ही दीप जलता है, उसी प्रकार प्राण से प्राण सचेत होता है। चरित्र को देखकर ही चरित्र बनता है। गुरु के सम्पर्क-सान्निध्य, उनके जीवन से प्रेरणा लेकर ही मनुष्य-मनुष्य बनता है। इस प्रकार शिक्षक अपने श्रेष्ठ आचरण से श्रेष्ठ मनुष्य (शिष्य) का निर्माण करता है।