श्रद्धा से श्राद्ध बना है। श्रद्धापूर्वक किए गए कार्य को ही श्राद्ध कहते है। श्राद्ध से श्रद्धा जीवित रहती है। श्रद्धा को प्रकट करने का जो प्रदर्शन होता है, वह श्राद्ध कहलाता है। जीवित बुजुर्गों और गुरुजनों के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए उनकी अनेक प्रकार से सेवा पूजा तथा संतुष्टि की जा सकती है, परंतु पितरों के लिए श्रद्धा एवं कृतज्ञता प्रकट करने वाले को कोई निमित्त बनाना पड़ता है। यह निमित्त है श्राद्ध। इस वर्ष श्राद्ध पक्ष 17 दिन का रहेगा, जो 1 सितंबर से आरंभ होकर 17 सितंबर तक चलेगा। अपने दिवंगत पूर्वजों के प्रति श्रद्धा प्रकट करने तथा उनके स्नेह एवं आशीर्वाद प्राप्त करने का यह सर्वोत्तम अवसर है। हिंदु परंपरा के अनुसार श्राद्ध पक्ष को दिवंगत आत्माओं से आशीष लेने का महापर्व के रूप में भी माना गया है।
पितरों के प्रति श्रद्धा का महापर्व श्राद्ध
पितरों के लिए कृतज्ञता के इन भावों को स्थिर रखना हमारी संस्कृति की महानता को ही प्रकट करता है, जिनके सत्कार के लिए हिन्दुओं ने वर्ष में 16 दिन का समय अलग निकाल लिया है। पितृ भक्ति का इससे उज्ज्वल आदर्श और कहीं मिलना कठिन है। पितृ पक्ष का हिन्दू धर्म और हिन्दू संस्कृति में बड़ा महत्व है। आश्विन मास का कृष्ण पक्ष, पितृ पक्ष या श्राद्ध पक्ष कहलाता है। इस दौरान पितरों का तर्पण श्रद्धा द्वारा पूरा किया जाता है। हिन्दु शास्त्रों के अनुसार मुत्यु होने पर मनुष्य की जीवात्मा चन्द्रलोक की तरफ जाती है और ऊंची उठकर पितृलोक में पहुंचती है। इन मृतात्माओं को अपने नियत स्थान तक पहुंचने की शक्ति प्रदान करने के लिए पिण्डदान और श्राद्ध का विधान किया गया है। धर्म शास्त्रों में यह भी कहा गया है कि जो मनुष्य श्राद्ध करता है, वह पितरों के आशीर्वाद से आयु, पुत्र, यश, बल, बैभव, सुख और धन-धान्य को प्राप्त करता है।
माता पिता व गुरुजनों के प्रति कृतज्ञता की भावना, जीवन भर धारण किये रहना आवश्यक है। यदि इन गुरुजनों का स्वर्गवास हो जाय, तो भी मनुष्य की वही श्रद्धा स्थिर रहनी चाहिए। इस दृष्टि से मृत्यु के पश्चात् पितृ यज्ञों में मृत्यु की वर्ष तिथि के दिन, पर्व समारोहों पर श्राद्ध करने का विधान प्राचीन ग्रंथों में, स्मृतियों में पाया जाता है।
श्राद्ध तर्पण का लाभ मिलता है?
दिवंगत हुए अपने पूर्वजों, व्यक्तियों का श्राद्ध कर्म करने से कुछ लाभ है कि नहीं? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि होता है, लाभ अवश्य होता है। संसार एक समुद्र के समान है, जिसमें जल-कणों की भांति हर एक जीव है। विश्व एक शिला है, तो व्यक्ति एक परमाणु। जीवित या मृत व्यक्ति की आत्मा इस विश्व में मौजूद है और अन्य समस्त आत्माओं से उसका संबंध हैं। छोटा सा यज्ञ करने पर उसकी दिव्य गंध व भावना समस्त संसार के प्राणियों को लाभ पहुंचाती है। इसी प्रकार कृतज्ञता की भावना प्रकट करने के लिए किया हुआ श्राद्ध समस्त प्राणियों में शांतिमयी सद्भावना की लहरें पहुंचाता है। यह सूक्ष्म भाव-तरंगें तृप्तिकारक और आनंददायक होती हैं। सद्भावना की तरंगें जीवित मृत सभी को तृप्त करती हैं, परंतु अधिकांश भाव उन्हीं को पहुंचता है, जिनके लिए वह श्राद्ध विशेष प्रकार से किया गया है। तर्पण का वह जल उस पितर के पास नहीं पहुंचा, वहीं धरती में गिरकर विलीन हो गया, यह सत्य है।
यज्ञ में आहुति दी गयी सामग्री जलकर वहीं खाक हो गयी, यह सत्य है। पर यह कहना ठीक नहीं कि इस यज्ञ या तर्पण से किसी का कुछ लाभ नहीं हुआ। धार्मिक कर्मकाण्ड स्वयं अपने आपमें कोई बहुत बड़ा महत्व नहीं रखते। महत्त्वपूर्ण तो वे भावनाएं हैं, जो उन अनुष्ठानों के पीछे काम करती हैं। श्राद्ध को केवल रुढ़िवादी परंपरा मात्र से पूरा नहीं कर लेना चाहिए, वरन् पितरों के द्वारा जो उपकार हमारे ऊपर हुए हैं, उनका स्मरण करके, उनके प्रति अपनी श्रद्धा और भावना की वृद्धि करनी चाहिए। साथ-साथ अपने जीवित बुजुर्गों को भी नहीं भूलना चाहिए। उनके प्रति भी आदर, सत्कार और सम्मान के पवित्र भाव रखने चाहिए।
डॉ.प्रणव पण्ड्या (देवसंस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार)
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