श्रीकृष्ण जन्माष्टमीः जानें क्या कहते हैं कान्हा के बारे में जाने-माने कथावचक

अथ श्री कथावाचक कथा
कृष्ण का जीवन और मार्गदर्शन आज भी उतने ही उपयोगी हैं जितने द्वापर में थे। यही कारण है कि कन्हैया की कथाओं को सुनाने की परंपरा बदस्तूर जारी है। हां, कुछ बदलाव जरूर हुए हैं। अब कथावाचन में बिजनेस का पुट भी आ गया है। कथावाचकों के बीच कृष्ण की लोकप्रियता के कारणों और कथा के बदलते स्वरूप के बारे में जानकारी दे रहे हैं नरेश तनेजा

‘आनंद और उत्साह के देवता हैं कृष्ण’ – रमेश भाई ओझा
धीर-गंभीर रमेश भाई ओझा 40-45 बरसों से कृष्ण भक्तों को भागवत और कृष्ण कथारस पिला रहे हैं। शेरो-शायरी, गज़ल, कविता, भजन और व्याख्यानों के ताने-बाने के ज़रिए वह कथा के मर्मस्पर्शी और गूढ़ विषयों को लोगों के से सामने रखते हैं ताकि रोचकता बनी रहे और युवाओं की भी जिज्ञासा शांत हो।

ओझा के मुताबिक, कृष्ण के कथावाचकों में लोकप्रिय होने के तीन अहम कारण हैं। पहला, उनकी लीलाएं आज की समस्याओं का समाधान देने वाली हैं। दूसरा, वह आनंद और उत्साह के देवता हैं और आज हर आदमी आनंद और उत्साह चाहता है।

तीसरी बात, श्रीकृष्ण एक पूर्णावतार हैं। शासक, आध्यात्मिक गुरु, कलाविद, कलाकार और समाज सुधारक, अपने सभी रूपों में कृष्ण श्रेष्ठ हैं। उनके व्यक्तित्व के सभी आयामों से प्रेरणा मिलती है।

कृष्ण की पूजा हो और उसमें गीत-संगीत न आए तो सब कुछ फीका-फीका-सा लगता है। इसलिए संकीर्तन के साथ गायन भी होता है। लोग नृत्य भी करने लगते हैं। वैसे भी, कथा की दो पद्धतियां हैं: व्यास पद्धति और नारदीय पद्धति। व्यास पद्धति में वाचक कथा कहता है और श्रोता सुनते हैं। लेकिन पिछले कुछ बरसों से कथा की नारदीय पद्धति को पसंद किया जा रहा है। नारद जी के हाथ में वीणा और खड़ताल है। इसीलिए इस पद्धति में भजन-कीर्तन का महत्व रहता है।

बहुत जरूरी है मनोमंथन
लोग कथा की ओर कैसे आकर्षित होते हैं? ओझा कहते हैं कि जीवन में मनोरंजन ही सब कुछ नहीं है। रोजमर्रा की समस्याएं भी होती हैं, जिन्हें कथा के माध्यम से समझा जा सकता है। मनोरंजन भी जरूरी है, लेकिन मनोमंथन बहुत ज़रूरी है। कथा बूढ़ों के टाइमपास का साधन मात्र नहीं है। यह युवाओं के लिए भी उतना ही अहम है। युवाओं के सामने लंबा जीवन पड़ा है। उस जीवन को कैसे जिएं, कथा इसके रास्ते भी सुझाती है।

इसे बिजनस बनाना ठीक नहीं
आज जिस तरह कच्चे-पक्के लोग कथा करने लगे हैं, उससे क्या यह एक बिज़नस नहीं बन गया? इस पर ओझा कहते हैं, ‘बढ़ती भौतिकता को काउंटर करने के लिए आध्यात्मिक विकास जरूरी है। कथावाचन, श्रवण व ज्ञान आदि आध्यात्मिक विकास के तरीके हैं। इनके लिए बड़ी संख्या में कथावाचकों की जरूरत पड़ती है। वाचन करने से पहले योग्य गुरु के पास जाकर संस्कृत और भागवत, वेद शास्त्रों और भाषा का अनुशासित तरीके से अध्ययन करना चाहिए ताकि खुद भी ठीक से समझ सकें और श्रोताओं को भी सही व्याख्या कर सकें। दूसरे, कथा वितरण और प्रसार के लिए होती है। इसका बिज़नेस नहीं बनाया जाना चाहिए।’ कुछ बड़े कथावाचक आयोजकों के सामने बड़े पंडाल, ज्यादा श्रोता और दक्षिणा की मांग के सवाल पर वह कहते हैं कि अगर आप किसी बड़े कथावाचक को बुलाते हैं तो लोग ज्यादा आ जाएंगे और अव्यवस्था फैल जाएगी। इसके लिए व्यवस्था करनी पड़ती है।

‘भजन-कीर्तन, नृत्य से माहौल बनता है’ – देवकी नंदन ठाकुर
झूलते लंबे काले बालों वाले देवकीनंदन ठाकुर 40 बरस के हैं और 1997 से कथा कर रहे हैं। वह कहते हैं, ‘श्रीकृष्ण इसलिए कथावाचकों को सबसे ज़्यादा भाते हैं क्योंकि वह लोगों की भावनाओं को समझते थे। उन्होंने लीलाएं भी ऐसी कीं जिनसे लोग मोहित और प्रेरित हुए और हो रहे हैं। वह जानते थे कि युगों-युगों तक इंसान की चाह क्या होगी। इसीलिए सब उनसे जुड़ जाते हैं। संपर्क में आने वाले हर किसी को कृष्ण मित्र बना लेते थे। कथा कृष्ण के मैत्री भावना के विस्तार का संदेश देता है, फिर चाहे वह दो लोगों के बीच हो या दो देशों के।

उनकी कथाएं सिखाती हैं कि हमें माता-पिता, परिवार और समाज के साथ कैसे रहना चाहिए।’ कथा के माहौल को रोचक बनाने के लिए देवकीनंदन कथा के दौरान उन मूल्यों को वापस लाने की चर्चा करते हैं, जिनकी आज परिवार और आपसी संबंधों में कमी होती जा रही है। अपनी परेशानियों से लोग कैसे उबरें इसका उदाहरण वह कथा के प्रसंगों से निकालकर देते हैं। इसके अलावा उनकी कथा में भजन-कीर्तन और नृत्य भी माहौल बना देते हैं। हालांकि, देवकीनंदन नहीं मानते कि ज्यादातर लोग कथा का बिजनस कर रहे हैं। वह कहते हैं कि भले ही आज कच्चे-पक्के सब तरह के कथावाचक कथाएं कर रहे हैं, पर जितने भी लोगों तक वे कथा पहुंचा रहे हैं, भगवान से ही तो जोड़ रहे हैं। देवकी नंदन नहीं मानते कि एक महीने में कोई कथावाचक बन सकता है।

‘कथा से निकालते हैं समस्याओं का हल’ – डॉ. संजय कृष्ण सलिल
एचडी डिग्रीधारी डॉ. संजय कृष्ण सलिल को बड़े पंडाल या श्रोताओं के बड़े हुजूम की जरूरत नहीं होती। उनके अनुसार, ‘कथावाचकों के बीच कृष्ण इसलिए लोकप्रिय हैं क्योंकि वह आज के समय की जरूरत हैं। कृष्ण ने वह किया जो आम लोगों को पसंद आता है। अगर किसी के घर में बच्चा शरारत करता है, चोरी से खाता है, नटखट है तो परिवार के लोगों को वह बहुत भाता है। इसलिए कान्हा की बालकथाएं उन्हें पसंद हैं। फिर उन्होंने समाज को जो संदेश द्वापर में दिए थे, वे आज भी उतने ही मायने रखते हैं। आम लोगों को समस्याओं से निकलने का रास्ता दिखाते हैं, तनाव को दूर करते हैं, उन्हें राह से डिगने से बचाने का संबल बनते हैं।’ सलिल मानते हैं कि कथावाचक को अपनी कथा को उपयोगी बनाने के लिए भजन-कीर्तन की चाशनी का प्रयोग करना होता है। समाज और उसकी समस्याओं के हल कथा से निकालकर देने होते हैं, ताकि वह अधिक उपयोगी हो सके।

सलिल कहते हैं, ‘यह सच है कि टीवी पर आने से कथावाचक को ज्यादा शोहरत मिलती है। लोग नाम जानने लगते हैं। पहचानने लगते हैं। अहम बात यह है कि जो लोग कथास्थल तक नहीं आ पाते, खासकर बुजुर्ग और बीमार या जिनके बच्चे उन्हें लेकर नहीं आ पाते। मैंने ऐसी जगहों पर भी कथावाचन किया है, जहां लोगों के पास साधन नहीं थे।’

‘जो आकर्षित करे वही कृष्ण’ – देवी चित्रलेखा
खने में जितनी सुंदर और मासूम, कथा करने और व्याख्या करने में उतनी ही कुशल। देवी चित्रलेखा काफी समय से कथा वाचन कर रही हैं। वह कहती हैं जो आपको आकर्षित करता है, वही कृष्ण है। कृष्ण की महिमा ही ऐसी है कि बच्चे हों या बूढ़े सब उनसे जुड़ा हुआ महसूस करते हैं। बच्चों के साथ बच्चे और बड़ों के साथ बड़े। इसलिए कृष्ण के साथ सबको नजदीकी या अपनापन लगता है।

देवी चित्रलेखा को कथावाचन करते हुए तकरीबन 14 बरस हो गए हैं। सिर्फ 7 साल की छोटी-सी उम्र में उनका सफर शुरू हुआ था। कथावाचन के लिए न कोई प्रॉपर ट्रेनिंग और न ही प्लैनिंग। संत-महात्माओं के यहां कथा सुनने गए बस, कथावाचन का चाव हो गया। पहले भजन गाए, फिर धीरे-धीरे कथा वाचन करने लगीं। शुरुआत में दूसरों से सुन-सुनकर याद कीं। बाद में भागवत और दूसरे ग्रंथों के अध्ययन से जानकारी बढ़ाई। हाल ही में उन्होंने बीए फाइनल ईयर की परीक्षा दी हैं। वह मानती हैं कि कथा का दिलचस्प होना ज़रूरी है, लेकिन कथा मनोरंजन नहीं मनमंथन के लिए होती है। आज के दौर में श्रोता कथा में भजन-कीर्तन और नृत्य भी चाहते हैं। इसलिए मर्यादित रहकर ऐसी व्यवस्था का भी ध्यान रखना पड़ता है।

कथाएं तो ज्यादातर लोगों को मालूम ही होती हैं। ऐसे में कथा तत्व से जोड़े रखने के लिए पारिवारिक बातों और युवाओं से जुड़े मुद्दे भी लेने पड़ते हैं ताकि श्रोता खुद को कथा से जुड़ा हुआ महसूस करें। अगर आज की बात नहीं की जाएगी तो कथा में दिलचस्पी पैदा नहीं होगी। हालांकि, लोगों को कथा की तरफ आकर्षित करने के लिए वह अलग से कुछ नहीं करतीं। वह कहती हैं, ‘जो शास्त्रों में कहा गया है, वही बोलती हूं क्योंकि जो सत्य है और शुद्ध है, वही लंबे समय तक चलता है।

कथावाचन के बिज़नस बन जाने के बारे में वह कहती हैं कि अगर कोई कथा के लिए निश्चित धनराशि मांगे तो यह कथा को बेचने जैसा है। इससे कथा करने और करवाने वाले, दोनों को कोई लाभ नहीं होगा। जहां तक पैसे की बात है तो मैं अपने लिए कुछ नहीं मांगती। हमारी टीम में म्यूजिक वाले और दूसरे लोग भी हैं। उनका तो खर्च आता ही है। अब हम किसी को बोलें कि सारा दिन मुफ्त में हमारे साथ कीर्तन करने चलो तो रोज-रोज कौन आएगा? उनका घर कैसे चलेगा? हमारा जानवरों का एक हॉस्पिटल भी है, जिसका खर्च 20 लाख रुपये है। अस्पताल में 500 गाय हैं। उनकी देखभाल भी ज़रूरी है। आयोजक उसके लिए जो देना चाहें दे देते हैं, लेकिन मैं पहले से ही दक्षिणा की मांग करके कथा नहीं करती।

कथा के लिए आजकल जो तामझाम होते हैं, उसके बारे में चित्रलेखा कहती हैं, ‘पंडाल, कूलर, पंखे आदि का इंतज़ाम श्रोताओं के लिए होता है। कुछ लोग जमीन पर नहीं बैठ सकते। उनके लिए कुर्सियां रखनी पड़ती हैं। इसे आडंबर न माना जाए। सर्दी-गर्मी के हिसाब से श्रोताओं के लिए इंतजाम तो आयोजक को करने ही पड़ते हैं।’ चित्रलेखा मानती हैं कि टीवी व सोशल मीडिया से कथावाचकों को प्रसिद्धि मिलती है। जहां कथा करने जाओ, लोगों को आपके बारे में पहले से ही पता होता है। इससे वे और ज्यादा श्रद्धा से कथा सुनते हैं।

मथुरा से कपिल शर्मा
कथावाचकों की बढ़ती लोकप्रियता इंस्टेंट कथावाचक पैदा कर रही है। ये ऐसे कथावाचक हैं जो सत्संग के गुर इंस्टिट्यूट में सीख रहे हैं और वह भी गुरुदक्षिणा नहीं बल्कि फीस देकर। कभी आप वृंदावन जाएं तो वहां की दीवारों पर गौर करें। फटाफट कथावाचक बना देने वाले दावों से वे अंटी पड़ी हैं। वृंदावन में कथावाचक पैदा करने एक-दो नहीं बल्कि 100 के करीब सेंटर खुल गए हैं। इनमें से कुछ ऐसे संस्थान हैं जो 3 से 6 महीने में ही एक्सपर्ट कथावाचक बनाने का दावा करते हैं।

बेशक कथावाचन का काम इतना आसान नहीं होता। मंच पर बैठकर मिनटों नहीं, घंटों तक लोगों को अपनी बातों से बांधकर रखाना होता है। कथा में ज्ञान होता है, हास्य का पुट और गंभीरता भी। इन सभी चीजों को लोगों के सामने सही तरीके से रखने के लिए लंबे अनुभव की जरूरत होती है। इसलिए इसे अब भी पारंपरिक रूप से गुरु के निर्देशन में सीखने की ही कोशिश की जाती है, लेकिन इसका यह कमर्शल एंगल खासा दिलचस्प है।

वृंदावन में 1962 में स्थापित हुआ था श्रीनाथ धाम। इस गुरुकुल में पारंपरिक रूप से भागवत कथा बांचने की शिक्षा दी जाती है। यहां के संचालक डॉ. मनोज मोहन शास्त्री बताते हैं, ‘यहां देश के विभिन्न हिस्सों से लोग तो आते ही हैं, नेपाल से भी बड़ी संख्या में छात्र भागवत पढ़ने के लिए आते हैं। भागवत कथावाचक बनने के लिए शास्त्री (स्नातक) की डिग्री जरूरी है, लेकिन पिछले कुछ समय में ऐसा बदलाव आया है कि अब शास्त्री की डिग्री की जरूरत न के बराबर रह गई है। युवा वर्ग जल्दी से जल्दी कथावाचक बनकर पैसा कमाना चाहते हैं। ऐसे में वृंदावन के कुछ संस्थानों के लिए वे आसान टार्गेट हैं। लेकिन सच यही है कि 6 महीने में कथावाचक बनाने का जो दावा वे करते हैं, वह मुमकिन नहीं है।’ भागवत कथा में पारंगत होने के लिए 3 बरस तो लगते ही हैं।

पं. श्रीकांत शास्त्री भी वृंदावन में एक ट्रेनिंग सेंटर चलाते हैं। वह कहते हैं, ‘यह सीखने वाले की पढ़ाई में रुचि और ज्ञान पर निर्भर करता है कि वह कितने महीने में कथावाचक बन सकता है।’ श्री रंगलक्ष्मी आदर्श संस्कृत महाविद्यालय के प्राचार्य आचार्य रामसुदर्शन शुक्ल का कहना है कि बेहतर कथावाचक बनने के लिए व्याकरण और संस्कृत का ज्ञान होना जरूरी है, लेकिन अब मैं युवाओं में इसका अभाव देखता हूं।