युधिष्ठिर कमंडल लेकर सपरिवार तीर्थयात्रा को चल पड़े। श्रीकृष्ण के आदेश का उन्होंने पूरी तीर्थयात्रा में ध्यान रखा। काफी दिनों के बाद युधिष्ठिर सपरिवार वापस लौटे। उन्होंने श्रीकृष्ण को उनका कमंडल देते हुए कहा, ‘आपकी आज्ञा के अनुसार जहां-जहां मैंने स्नान किया, वहां-वहां इसे भी पानी में डुबाया है।’ यही तो मैं चाहता था, इतना कहकर श्रीकृष्ण ने उस कमंडल को जमीन पर जोर से पटक दिया। उसके टुकड़े-टुकड़े हो गए। प्रसाद रूप में एक-एक टुकड़ा वहां उपस्थित सभी लोगों में वितरित कर दिया। जिसने भी यह प्रसाद चखा, उसका मुंह खराब हो गया। लोगों को थूकते और मुंह बनाते देखकर श्रीकृष्ण ने धर्मराज से पूछा, ‘यह कमंडल इतने तीर्थों में घूमकर आ रहा है और अनेक स्थानों पर इसने स्नान भी किया है, फिर भी इसका कड़वापन दूर क्यों नहीं हुआ?’
युधिष्ठिर आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहने लगे, ‘आप भी कैसी अजीब बात करते हैं श्रीकृष्ण, कहीं धोने मात्र से कमंडल का कड़वापन निकल सकता है?’ अपनी स्वयं की पहेली सुलझाते श्रीकृष्ण कहने लगे, ‘यदि ऐसा है तो तीर्थस्नान का बाह्योपचार मात्र करने से अंतःकरण का परिष्कार, धुलाई-मार्जन कैसे हो सकता है?’ अब धर्मराज भलीभांति समझ चुके थे कि मन की पवित्रता के लिए अंतर्मुखी होकर अपने मन का अध्ययन करना ही सही तीर्थयात्रा है।– संकलन : मुकेश ऋषि