व्यक्ति को शुभ ग्रह दशा अपना पूर्ण फल दे, इस हेतु ऋषि-महर्षि, गुरुजन, व्यक्ति के मन का परीक्षण करने के लिए उनसे दान-पुण्य सेवा-संकल्प कार्य करवाते थे। दान-पुण्य सेवा करने से मन की तरंगें परिवर्तित होकर व्यक्ति का कल्याण करती हैं। अगर मनुष्य सेवा आदि कार्य न करके अथवा अपने मन को परिवर्तित नहीं कर पाता है, तो उसे वही पुराने परिणाम ही मिलते रहते हैं, जो वर्षों से उसे प्राप्त हो रहे हैं। नए परिवर्तन के लिए मन का परिवर्तित होना अत्यंत आवश्यक है। मन में जो आता है, वाणी वही कहती है, वही कर्म किया जाता है, और जो कर्म किए जाते हैं, उसी का फल व्यक्ति को मिलता है।
मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन उसका स्वार्थ है, स्वार्थ के कारण मनुष्य केवल अपने ही विषय में हर समय सोचता रहता है। मैं, मेरा, मेरा शरीर, मेरा मन, मेरा धन, मेरा घर, मेरा परिवार मेरी दुनिया से आगे, मनुष्य कुछ सोच ही नहीं पाता, जिससे उसकी प्रगति एक स्तर पर जाने के बाद रुक जाती है। बड़े-बुजुर्गों का मानना है कि स्वार्थी सोच मनुष्य को अकेला कर देती है, क्योंकि इस प्रकार की सोच व्यापक दायरे से समेट कर व्यक्ति को मैं की गली में लाकर छोड़ देती है, इसलिए आस-पास की दुनिया उसके विपरीत हो जाती है। वहीं अपनी सोच को व्यापक करने से जब व्यक्ति अन्य लोगों के हित की सोचता व करता है, तब स्वाभाविक प्रतिक्रिया से अनेक बाहरी तत्वों के सहयोग से उसे सफलता मिलने लगती है।