घेराबंदी किए बैठे अकबर के सैनिकों पर दुद्धा की नजर पड़ी। मुगल सैनिक उसे पकड़ने के लिए उसके पीछे भागने लगे। दौड़ते-दौड़ते वह एक चट्टान से टकराया और गिर पड़ा। एक सैनिक की तलवार से बालक दुद्धा की नन्ही कलाई पर गहरा घाव लग गया। फिर भी नीचे गिर पड़ी रोटी की पोटली उसने दूसरे हाथ से उठाई और सरपट दौड़ने लगा। बस, उसे तो एक ही धुन थी कि कैसे भी करके महाराणा प्रताप तक रोटियां पहुंचानी हैं। रक्त बहुत बह चुका था। अब दुद्धा की आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा। जिस गुफा में महाराणा प्रताप रुके थे, वहां पहुंचकर दुद्धा चकराकर गिर पड़ा। उसने एक बार और शक्ति बटोरी और आवाज लगाई, ‘राणाजी, ये रोटियां मां ने भेजी हैं।’
फौलादी तन और अटूट प्रण वाले महाराणा प्रताप की आंखों से, यह दृश्य देखकर शोक का झरना फूट पड़ा। उन्होंने कहा, ‘बेटा, तुम्हें इतने बड़े संकट में पड़ने की क्या जरूरत थी?’ वीर दुद्धा ने कहा, ‘मां कहती हैं, आप चाहते तो अकबर से समझौता कर आराम से रह सकते थे, पर आपने धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए कितना बड़ा त्याग किया, उसके आगे मेरा त्याग तो कुछ नहीं है।’ इतना कहकर दुद्धा वीर गति को प्राप्त हो गया। अरावली की घाटी में वीरता की यह कहानी आज भी देशभक्ति का उदाहरण बनकर बिखरी हुई है। – संकलन: आर.डी. अग्रवाल ‘प्रेमी’