होठों की मुस्कान के बारे में वेदों में कही गई हैं ये बातें

पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

अमेरिका के कैलिफॉर्निया राज्य में एक स्त्री थी, जो बहुत दिनों तक खिन्न ओर चिन्तित रहने के कारण अनिंद्रा से परेशान थी। जीवन उसके लिए भारस्वरूप हो गया था। किसी ने दिन में कम से कम तीन बार खिलखिलाकर हंसने की सलाह दी। तदनुसार उसने अकारण भी दिन में कई बार हंसना शुरू किया। परिणाम यह हुआ कि केवल इसी उपाय से न केवल उसे ठीक से नींद आने लगी अपितु उसके स्वास्थ्य में भी वाञ्छित सुधार हो गया।

प्रसन्नता प्रकृति की दी हुई बिना मोल का सबसे महत्त्वपूर्ण पौष्टिक उपहार है। इससे शारीरिक बल और मानसिक उत्साह में आशातीत अभिवृद्धि होती है। मन पर जमी विषाद की धूल झड़ जाती है। मन प्रसन्नता से भर जाता है। प्रसन्न और स्वस्थ मन ही स्वस्थ और सबल शरीर का जनक होता है।

हमारे ऋषि इस तथ्य से परिचित थे। इसलिए उन्होंने सर्वत्र इसका उल्लेख करके अपनी बहुज्ञता का परिचय दिया है। प्रसन्न रहने की प्रेरणा देती हुई श्रुति कहती है-विश्वाहा सुमना दीदिहीह। (अथर्ववेद ७। ७४। ४) इसका अर्थ है, हे मानव! तू इस संसार में प्रसन्नचित्त होकर चमक और स्वयं प्रकाशित होकर अन्यों को प्रकाशित कर।

प्रसन्नता का अभाव मन में नीरसता का बढ़ाता है। व्यक्ति को निराश और अकर्मण्य बना देता है। इसलिए अप्रसन्नता का त्याग करते हुए अथर्ववेद कहता है- मात्र तिष्ठः पराङ्मनाः। (अथर्व. ८। १। ९) अर्थात् इस संसार में गिरा मन लेकर मत रह। सर्वदा पुष्प की भांति रहना, मुस्कराना ही जीवन का आनन्द है। बुद्धिमान मनुष्य की कामना वहीं रहनी चाहिए।

‘विश्वदानीं सुमनसः स्याम।’ (ऋग्वेद ६। ५२। ५) इसका अर्थ है कि हम प्रत्येक परिस्थिति में पुष्प की भांति सदा प्रसन्न रहें और खिले रहें।

जायाः पुत्राः सुमनसो भवन्तु। (अथर्ववेद ३। ४। ३) स्त्रियां तथा पुत्र सभी उत्तम, प्रसन्न मन वाले हों।

प्रजां कृण्वाथामिह मोदमानौ (अथर्ववेद १४। २। ३९) अर्थात हे महिला-पुरुषो! इस गृहस्थाश्रम में परस्पर प्रसन्न रहते हुए, आनन्द विनोद करते रहो।

मुस्कान सुख की खान का सिद्धान्त जो भी ठीक तरह समझते हैं और दैनिक जीवन में उसका उपयोग करते हैं, वे शरीर और मन दोनों दृष्टियों से स्वस्थ और प्रसन्न रहते हैं।

उन्मुक्त हास्य हंसने वाले को तो लाभ होता है, सुनने वाले भी उस उल्लास का लाभ उठाते हैं। डॉ. सैडर्सन का मत है-प्रसन्न रहने से शारीरिक बल में स्थायी वृद्धि होती है। आंखों में चमक, चेहरे पर कांति और मन में स्फूर्ति का संचार होता है। रोग प्रतिरोधक शक्ति भी बढ़ती है।

भारतीय तत्त्ववेत्ता प्रसन्न रहने की कला से परिचित थे। अभावग्रस्त परिस्थितियों के साथ अजस्र प्रसन्नता की उन्होंने संगति बिठाई। फलतः स्वस्थ शरीर, दीर्घायु, आनन्द एवं महानता से भरा पूरा जीवन जी सके। उनकी अभिव्यक्ति कितनी मार्मिक है। ऋग्वेद में कहा गया है—

प्राञ्चो अगाम नृतये हसाय प्राघीय आयुः प्रतरं दधानाः। मतलब, दीर्घतम और अति उत्कृष्ठ जीवन को धारण करते हुए हम हास, उल्लास एवं आनन्द भरे उत्तम मार्ग पर आगे ही बढ़ें। (गायत्री तीर्थ, हरिद्वार)