होली का पर्व है, सभी रंग खेलेंगे, सभी उत्सव मनाएंगे। गुलाल खूब उड़ेगा, बहुत अच्छा रहेगा, सुन्दर रहेगा और इस अवसर पर ये समझना भी आवश्यक हो जाता है कि इस पर्व का वास्तविक महत्त्व क्या है, इस पूरे आयोजन का अर्थ क्या है!
राजा हिरण्यकश्यप असुरों के राजा थे। उन्होंने ब्रह्मा जी की उपासना की और वरदान प्राप्त किए। वरदान ये मांगा कि- मेरी मृत्यु न हो। न दिन में, न रात में, न घर के अंदर, न घर के बाहर, न अस्त्र से, न शस्त्र से, न नर द्वारा, न पशु द्वारा, न धरती पर, न जल पर, न आकाश में और उन्हें ये वर प्राप्त भी हो गया। हिरण्यकश्यप फूले नहीं समाए। अहंकार और प्रबल हो गया। अब उन्हें कोई मार नहीं सकता था। पूरे राज्य में घोषणा कर दी कि यहां उनके अतिरिक्त किसी और की उपासना नहीं होगी। बल इतना था राजा को कि सबको राजा की बात माननी ही पड़ी, लेकिन बेटे ने प्रहलाद की बात नहीं मानी उसने कहा वह ईश्वर के आगे किसी और की पूजा-आराधना नहीं करेगा।
राजा हिरण्यकश्यप के अहं के लिए ये बड़ी चोट थी। पूरी दुनिया उनका यशगान कर रही है, उनके समक्ष नमित है और अपने ही महल में अपना ही बेटा कह रहा है कि- नहीं! मैं आपको परमसत्ता नहीं मानता। प्रहलाद विष्णु का उपासक था। राजा ने बहुत तरीकों से प्रह्लाद को समझाया, बहलाया-फुसलाया, डराया-धमकाया। प्रह्लाद नहीं माना।
आखिर में राजा ने अपनी बहन होलिका को बुलाया। होलिका ने एक लकड़ियों की बड़ी चिता तैयार करवाई और उस पर प्रह्लाद को लेकर बैठ गयी। होलिका को सिद्धि थी कि अग्नि उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। हिरण्यकश्यप ने और होलिका को लगा था कि लकड़ियां जलेंगी और उनके साथ प्रह्लाद भस्म हो जाएगा और होलिका का कुछ बिगड़ेगा नहीं। ईश अनुकम्पा से प्रह्लाद का बाल भी बांका नहीं हुआ और होलिका भस्मीभूत हो गयी। हिरण्यकश्यप यह देखकर के क्रोधत हो गया। उसने एक लोहे का खंभा गरम करवाया और प्रह्लाद से कहा- ‘जा इस लोहे के खंभे को गले लगा ले, देखता हूं अब तेरा विष्णु कैसे बचाता है तुझे?’
विष्णु पुराण में इसका उल्लेख है कि प्रह्लाद ने खंभे को गले लगाया और फिर खंभे से विष्णु अपने नरसिंह अवतार में प्रकट हुए। आधे सिंह थे, आधे नर थे। हिरण्यकश्यप की तरफ बढ़े, उसे धर दबोचा। गोधूलि बेला थी। न दिन था, न रात थी, बीच का समय था। हिरण्यकश्यप को उठाकर के महल के प्रवेशद्वार की चौखट पर ले गए। न महल के अंदर, न बाहर और फिर अपने पंजों से, अपने सिंहनखों से हिरण्यकश्यप का हृदय फाड़ दिया- अपनी गोद में बैठा कर। न धरा में, न आकाश में, न अस्त्र से, न शस्त्र से, न घर के अन्दर, न घर के बाहर, न दिन में, न रात में , न नर द्वारा, न पशु द्वारा, आधे नर थे, आधे पशु थे- सब शर्तें पूरी हुईं, हिरण्यकश्यप का वध हुआ। इस तरह सत्य जीता, श्रद्धा जीती, अहंकार हारा तो ये है होली के उत्सव के पीछे की कथा। इस कथा से मैं समझता हूं, पांच बड़े मर्म की, बड़े तत्व की बातें हमें पता चलती हैं।
पहली बात- अहंकार साधना भी करेगा तो इसलिए नहीं करेगा कि वो विसर्जित हो जाए, कि विगलित हो जाए, मिट जाए। वो साधना भी करेगा, श्रम भी करेगा तो इसलिए करेगा कि वो बचा रहे, बल्कि अमर ही हो जाए। हिरण्यकश्यप ने बड़ी साधना की और साधना करके वरदान यही मांगा कि वो अमर हो जाए, उसे किसी भी तरीके से मृत्यु न आए। हम भी बहुत श्रम करते हैं। बड़ी मेहनत करते हैं। ये जानना जरूरी है कि हम मेहनत किस लिए रहा करते हैं? सत्य के सामने नमित होने के लिए या फिर अपने अहंकार को ही और बढ़ाने के लिए? हिरण्यकश्यप की साधना देखिए न, कितनी साधना करी? लेकिन किसलिए? इसलिए नहीं कि प्रभु से ही मिल जाए, सच के सामने झुक जाए, जीवन को सार्थक कर ले। पूरी साधना करके चाहा उसने यही कि उसका शरीर अमर हो जाए, उसकी अपनी व्यक्तिगत सत्ता अमर हो जाए। सिर्फ मेहनत करना काफी नहीं है। श्रम या साधना करना काफी नहीं है, ये देखना भी जरूरी है कि किसके लिए मेहनत कर रहे हो! उद्देश्य क्या है, मेहनत के पीछे कौन बैठा है!
दूसरी बात- अहं को जो कुछ भी मिलेगा, उसका इस्तेमाल मनुष्य स्वयं को बढ़ाने के लिए ही करेगा। दूसरों के कल्याण के लिए नहीं, अपने स्वार्थ के लिए ही करेगा। बड़ी से बड़ी शक्ति और सिद्धि उपलब्ध हो गयी थी हिरण्यकश्यप को। मृत्यु का भय, मृत्यु का खतरा आदमी के सामने सबसे बड़ा खतरा होता है। हिरण्यकश्यप का वही खतरा टल गया था। इतने बड़े वरदान का प्रयोग करके हिरण्यकश्यप दुनिया में ऊंचे से ऊंचा सत्कार्य कर सकता था ,लेकिन हिरण्यकश्यप ने इस ताकत का प्रयोग स्वयं भगवान बन जाने के लिए किया। हमें इससे सीख मिलती है कि अगर गलत हाथों बड़ी से बड़ी शक्ति पड़ जाए तो उसका दुरुपयोग ही होगा। हम सब भी अपने लिए बहुत कुछ अर्जित करना चाहते हैं, लेकिन अर्जित करने के पहले, अपनी शक्ति बढ़ाने के पहले, दूसरों की सामर्थ्य बढ़ाने के पहले ये जरूर देख लें कि कौन है जिसकी शक्ति बढ़ने जा रही है, किन हाथों में सत्ता दी जा रही है? शक्ति और सत्ता दुधारी तलवार के समानहै। उसका इस्तेमाल पुण्य के लिए भी हो सकता है और बड़े से बड़े पाप के लिए भी। शक्ति बहुत आवश्यक है कि उन्हीं हाथों में रहे जो पुण्य की प्रेरणा से चलें।
तीसरी बात- ये रिश्तों की, संबंधों की बात है और होली पर तो हम संबंधों का ही उत्सव मनाते हैं। मित्रों से, यारों से मिलते हैं। सबको रंग लगाते है, गले मिलते हैं। बुरा न मानो होली है। संध्यासमय, समाज में जिनको भी जाते हैं, उन सबसे मिलते हैं, बैठते हैं। गुझिया बंटती है पर संबंध किससे? संबंध कैसे? संबंधों का आधार क्या है? ये जानना जरूरी है। देखिए प्रह्लाद की ओर पिता से जन्म का रिश्ता था, बहुत निकट का रिश्ता था, लेकिन प्रह्लाद ने कहा कि, ‘सत्य से मेरा जो रिश्ता है, वो पिता से मेरे रिश्ते से ज्यादा महत्वपूर्ण है। हिरण्यकश्यप मात्र पिता हैं मेरे। सत्य परमपिता है।’
जिस प्रह्लाद की स्मृति में, जिस प्रह्लाद के सम्मान में होली का त्योहार हम मनाते हैं उस प्रह्लाद का भाव देखिए, उस प्रह्लाद की श्रद्धा देखिए, वो कह रहा है- पिता मेरे कितने ही बलशाली हों, अगर वो सत्य की अवहेलना कर रहे हैं मैं अपने ही पिता के खिलाफ खड़ा हो जाऊंगा। प्रह्लाद एक बालक मात्र है। उसके पास कोई ताकत नहीं है। उसके सामने एक अतिबलशाली राजा और उसके पिता दोनों है है, लेकिन वो बच्चा रक्त संबंध की परवाह नहीं करता। न सामने जो अत्याचारी है उसके बल की परवाह करता है। वो कहता है ‘मैं झुकूंगा तो बस सच के सामने तो होली में जब हम दोस्तों, यारों, संबंधियों के पास जाएं तो सदा याद रखें कि हमें प्रह्लाद ने सिखाया है कि पहला संबंध सत्य के साथ होना चाहिए। बाकी सब संबंध पीछे के हैं। सच्चाई के लिए किसी को भी पीछे रखा जा सकता है।
चौथी बात, हो सकता है हम बहुत चालाक हों, हम हो सकता है बड़े सिद्धस्थ हों, हमें हो सकता उसी तरह कुछ सिद्धियां प्राप्त हों, जैसे होलिका को प्राप्त थीं। कोई सिद्धि काम नहीं आएगी। होलिका ने बड़ी चालाकी खेली। उसकी चालाकी ही उसे ज्वालाओं तक ले गयी। यही सीख है कि जो जितना चालाक होगा वो अपनी चालाकी के द्वारा ही जल मरेगा। बड़ी से बड़ी चालाकी, निर्दोष मासूमियत के सामने छोटी है। जब भी कभी द्वंद होगा- चतुरता में, होशियारी में, चालाकी में और निर्दोषता में, भोलेपन में, मासूमियत में, यकीन मानिए, श्रद्धा रखिए मासूमियत जीतेगी, निर्दोषता जीतेगी। चलाकी बड़ी चीज लगती है पर चालाक लोगों का वही हश्र होगा जो होलिका का हुआ था। होली अवसर है अपनी चालाकियों को पीछे छोड़ने का। एक सीमा तक चालाकी जाती है उसके बाद अपना काल वो स्वयं बन जाती है, अपनी ही ज्वाला में स्वयं जल जाती है।
पांचवीं और आखिरी बात- जिससे सबकुछ मिला हो उसके ही खिलाफ खड़े मत हो जाना। भगवान से वरदान पाए हिरण्यकश्यप ने और वो भगवान के ही खिलाफ खड़ा हो गया और अहंकार की ये बड़ी पहचान होती है उसे जिससे सबकुछ मिला है वो उसका ही विरोध करने लगता है। जिससे सबकुछ पाया है वो अपनेआप को उससे ही बड़ा समझने लग जाता है। हिरण्यकश्यप जिससे वरदान पा रहा है, उस ईश्वर की आराधना न स्वयं करी बल्कि औरों के करने पर भी प्रतिबंध लगा दिया। वह भूल गया कि उसको ये सत्ता मिली किससे। वैसा ही इंसान बिल्कुल भूल जाता है कि जीवन मिला किससे है। भूल जाता है कि ये सूरज, चांद, हवा, पानी न हो तो उसका क्या होगा। भूल जाता है कि ये धरती उसने कमाई नहीं है। भूल जाता है कि जीवन की मूल चीजें उसे उपहार स्वरूप मिली है। कोई अनुग्रह, धन्यवाद का कोई भाव उसके मन में नहीं उठता परमात्मा के प्रति। बल्कि वो परमात्मा के ही, सत्य के ही खिलाफ खड़ा हो जाता है, झूठ का पैरोकार बन जाता है। अपनी जिंदगी ही झूठ पर आधारित कर देता है। हिरण्यकश्यप का उदाहरण है।
किसी न किसी अर्थ में हम सब हिरण्यकश्यप हैं, और किसी न किसी अर्थ में हम सब के भीतर नन्हा प्रह्लाद भी बैठा हुआ है। होली का अवसर इसीलिए है कि हम अपने भीतर के प्रह्लाद को जागृत करें और हिरण्यकश्यप और होलिका को जरा स्वयं से दूर करें। सब हैं हम में- हिरण्यकश्यप का अहंकार है, होलिका की चालाकी है, और प्रह्लाद की निर्मलता, निर्दोषता भी हैं हम। जिसने आपको सारे वरदान दिए निश्चित रूप से वो उन वरदानों से बड़ा होगा। जो ईश्वर आपको वरदान दे सकता है कि न आप दिन में मरेंगे, न रात में मरेंगे, अन्दर मरेंगे न बाहर मारेंगें, वो ईश्वर उन वरदानों को काटने का उपाय भी जानता है। होंगे आप कितने भी बड़े, सामर्थ्यशाली, चतुर, चालाक। जिसने आपको सबकुछ दिया है वो आपसे बड़ा ही है। परम सत्ता सब पर भारी पड़नी है। उसका विरोध मत करो। उसके विरूद्ध मत खड़े रहो। उसके सामने नमित रहो। प्रेम की भावना रखो, श्रद्धा रखो।
तो ये कुछ बातें हैं होली के पर्व के विषय में। अब जब हम सब होली खेलें तो बाहर के रंगों के साथ-साथ भीतर उसका भी सुमिरन करते रहें जिसका कोई रंग नहीं है।
मन के बहुतक रंग हैं, पल पल बदले सोई।
एक रंग में जो रहे, ऐसा बिरला कोई।।
बाहर के रंग सुंदर हैं, शुभ हैं, भीतर उसको भी याद रखियेगा, जो सब रंगों से आगे का है। होली है ही इसलिए ताकि उसका स्मरण सुमिरन हो सके।
आचार्य प्रशांत
(आध्यात्मिक वक्ता व लेखक)