आचार्य कृष्णदत्त शर्मा
भारतीय सनातन धर्म की परंपरा में पर्वों, नदियों और तीर्थ स्थलों का कफी महत्व है। पर्व गन्ने के गाठों की तरह अपने अगले और पिछले भाग के बीच पुल का दायित्व निभाते हैं। पूर्व से रस ग्रहण करके आगे रहने वाले को प्रगति प्रदान करने का न केवल प्रशिक्षण देते हैं बल्कि इस दायित्व को निभाने के लिए खुद अपने पास शक्ति को संचित भी रखते हैं।
पर्व, अखंड काल धारा के अटूट प्रवाह का व परम पवित्र महत्तासंवलित तथा लोक शास्त्र द्वारा स्वीकृत बिंदु हैं, जिनके साथ प्राकृतिक, मानवीय, सांस्कृतिक, पर्यावरणीय एवं नैतिक परंपरा का ऐतिहासिक संबंध होता है। वह प्रत्येक मनुष्य को जल, थल, पर्वत, वृक्ष, जड़, चेतन के मध्य आत्मीयता स्थापित करता है। यही कारण है कि सभी तीर्थ नदियों के किनारे पर स्थित हैं। इससे सिद्ध होता है कि तीर्थों और पर्वों का परस्पर घनिष्ट संबंध है।
दशहरे पर करें ये छोटे-मोटे उपाय, सालभर होगी सुख-शांति और समृद्धि की वर्षा
‘स्वर्गादपि गरीयसी‘ भारत भूमि में प्रत्येक आश्विन मास के शुक्ल पक्षीय दशमी तिथि को मनाया जाने वाला विजय दशमी का पर्व यहां के मुख्य पर्वों में से सर्वश्रेष्ठ है। श्री वाल्मीकीय रामायण, श्री रामचरितमानस, कालिका उप पुराण एवं अन्य अनेक धार्मिक ग्रंथों के अनुसार भारतीय जनता के प्राण, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम के साथ इस पर्व का गहरा संबंध है। विद्वानों के अनुसार श्री राम ने अपनी विजय यात्रा इसी तिथि को आरंभ की थी। इसलिए विजय यात्रा के लिए यह पर्व शास्त्र सम्मत माना जाता है।
‘‘आश्विनस्य सिते पक्षे दशम्यां तारकोदये‘।
स कालो विजयो नाम सर्वकार्यार्थ साधकः।।
भारतीय काल गणना के अनुसार इसका आरंभ आज से लगभग नौ लाख वर्ष पूर्व सिद्ध होता है। ज्योतिष के सिद्धांतो के अनुसार इस समय में ऐसे ग्रह नक्षत्रों का संयोग होता है, जिससे विजय यात्रा का श्रीगणेश करने पर यात्री को जय की प्राप्ति होती है। इसलिए सालों से इस तिथि में राजा लोग अपने राज्यों की सीमा का अतिक्रमण करते रहे हैं। यूं भी भगवान श्री राम की विजय यात्रा के स्मरणार्थ मनाया जाने वाला विजय दशमी का पर्व आज भी अपने अनेक सदा रहने वाले मूल्यों के कारण प्रासंगिक है। इनसे मानव जाति को व्यापक लाभ की प्राप्ति तो होती ही है, साथ ही पूरा विश्व अनंत काल तक प्रेरणा लेता रहेगा। श्रीराम द्वारा रावण पर विजय दैवी एवं मानवीय गुणों- सत्य, नैतिकता और सदाचार की राक्षसी एवं अमानवीय दुर्गुणों- अनैतिकता, असत्य, दम्भ, अहंकार और दुराचार पर विजय है। यह पर्व न्याय की जीत और नारी जाति के अपमानकर्ताओं का संहारक है।
भक्तों के प्रति प्रेम, ऋषि-मुनियों एवं देवी-देवताओं के प्रति पूज्य भाव, जटायु तुल्य पक्षियों के प्रति आदर, शबरी और केवट जैसे उत्तम विचारों वाले लोगों के प्रति स्नेह, वनवासियों-उपेक्षितों के लिए प्रेम, अंगद, हनुमान, जाम्बवान और सुग्रीव जैसे सेवकों के प्रति प्रीति, नदियों के प्रति सम्मान और वनों-पर्वतों के प्रति कृतार्थता, त्रिजटा, लंकिनी एवं ऐसे अनेक राक्षसगण जो भगवान का सतत ध्यान करते थे, उन्हें मुक्ति प्रदान करने के भाव से चिर अनंत काल से प्रासंगिकता के द्वारा यह पर्व धन्य करता रहा है और करता रहेगा। क्योंकि इस तिथि की यह विजय यात्रा मात्र लंका या रावण पर की जाने वाली राजनीतिक जयमात्र नहीं है, बल्कि सनातन धर्म एवं मानवीय मूल्यों की संरक्षणात्मक पद्धति का मूलभित्यात्मक शिलान्यास है।
इस विजय के बाद प्राप्त किसी भी राज्य पर श्रीराम ने कभी स्वयं आधिपत्य नहीं रखा। उन्होंने रावण का राज्य विभीषण एवं बाली का राज्य उनके भ्राता सुग्रीव को लौटा दिया। यह यात्रा दुख में धैर्य धारण करने एवं सुख के समय कभी न इतराने के उपदेशों के साथ शुरू हुई थी। यह भगवान जानकीनाथ श्रीराम के पदचिह्नों पर चलने हेतु कृतसंकल्प लेने और कृतप्रयत्न होने का शुभ मुहूर्त है। दशहरा के नाम से लोक प्रख्यात यह बेला अकारण तथा निरपराध लोगों को सतत रुलाने वाले रावण के अहंकार रूपात्मक दस सिरों और पौरुष की दुरूपयोगिनी बीस भुजाओं के विनाश की प्रतीक है।
विजय दशमी की पूर्वपीठिका का आरंभ परमपावनी जगजननी जगदम्बिका की आराधनात्मक आश्विन शुल्क पक्ष की प्रतिपदा से ही हो जाता है, जिसे शारदीय नवरात्र भी कहते हैं। नौ दिनों तक आराधना, अर्चना तथा नियमित सेवादि व्रतों से जन्य शक्ति-संचय का मानो उद्देश्य ही यही होता है कि उस शक्ति की समुचित, संचित राशि के द्वारा सुमति से कुमति, मैत्री द्वारा निर्दयता और रिपुता (वैर भाव) को सरलता से जीता जा सके। एक ओर बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश का जनसम्मर्द भगवती की सपर्या में लीन होता है, नृत्य की झंकार, मृंदगों के ताल, भक्तों के मन्त्रोच्चारण एवं हवन का सुगंधिपूर्ण धूम- ये परिवेश को सात्विकता के रंग में रंग देते हैं। वहीं लोक हित के लिए विष पीकर अपने कंठ को नीला कर लेने वाले भगवान शिव के रूप में नीलकंठ का दशहरे के पर्व पर दर्शन करने से सभी लोग पुण्य की अनुभूति करते हैं।
शुभ-निशुंभ का वध करने वाली देवी गौरी की पुत्री कौन हैं, कैसे हुआ इनका प्राकट्य
इस पर्व के पूर्व बरसात के कारण राजाओं की यात्राएं और चतुर्मास्य के कारण सन्यासियों के आवागमन स्थगित होते हैं, लेकिन आश्विन मास के शुक्ल पक्ष के आते-आते मार्ग सुगम हो जाते हैं। साफ आकाश में पवन-संयोग के कारण मेघ बलाहक पक्षी की भांति उड़ने लगते हैं, ऋतु चक्र सुहावना हो जाता है, शस्यश्यामला धरा फलीभूत हो कृषक के गृह को समृद्ध बना देती है।
आज विजय दशमी की प्रासंगिकता पहले से अधिक गहराती जा रही है। क्योंकि यहां हर कदम पर रावण, खरदूषण, बाली और कुंभकरण देखे जा सकते हैं। आज जाने कितनी सीता प्रतिदिन अग्नि की भेंट चढ़ रही हैं, जीवन मूल्यों, पशु-पक्षी, वन-उपवनों, पर्वत-सागर, आचार-विचार सभी पर खतरे मंडरा रहे हैं। मनु, अग्नि, जमदाग्नि, गीता, रामायण, वेदों के देश में द्रौपदियों की लज्जा दांव पर है। अतः आज के परिवेश में इन पर विजय की आवश्यकता है और इन्हीं अर्थों में विजयदशमी सार्थक है। इस प्रकार निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि अपनी लोकसापेक्षता एवं उपयोगिता के कारण विजय दशमी की प्रासंगिकता पहले से अधिक बढ़ती जा रही है।