स्वर्गादपि गरीयसी भारत भूमि में प्रत्येक आश्विन मास के शुक्ल पक्षीय दशमी तिथि को मनाया जाने वाला विजयादशमी का पर्व यहां के मुख्य पर्वों में से अन्यतम है। वाल्मिकी रामायण, रामचरितमानस, कालिका उप पुराण और अन्य धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार भारतीय जनता के प्राण, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के साथ इस पर्व का गहरा संबंध है। विद्वानों के अनुसार श्रीराम ने अपनी विजय यात्रा इसी तिथि को आरंभ की थी। इसलिए विजय यात्रा के लिए यह पर्व शास्त्र सम्मत माना जाता है।
भारतीय काल गणना के अनुसार इसका आरंभ आज से लगभग नौ लाख वर्ष पूर्व सिद्ध होता है। श्रीराम द्वारा रावण पर विजय दैवी एवं मानवीय गुणों- सत्य, नैतिकता और सदाचार की राक्षसी एवं अमानवीय दुर्गुणों अनैतिकता, असत्य, दंभ, अहंकार और दुराचार पर विजय है। यह पर्व न्याय की जीत एवं नारी जाति के अपमानकर्ताओं का संहारक है। विजयादशमी की पूर्वपीठिका का आरंभ परमपावनी जगजननी जगदम्बिका की आराधनात्मक आश्विन शुल्क पक्ष की प्रतिपदा से ही हो जाता है, जिसे शारदीय नवरात्र भी कहते हैं।
नौ दिनों तक आराधना, अर्चना और नियमित सेवादि व्रतों से जन्य शक्ति-संचय का मानो उद्देश्य ही यही होता है कि उस शक्ति की समुचित, संचित राशि के द्वारा सुमति से कुमति, मैत्री द्वारा निर्दयता और वैर भाव को सरलता से जीता जा सके। एक ओर बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश के लोग भगवती की पूजा में लीन होते हैं, वहीं लोक हित के लिए विष पीकर अपने कंठ को नीला कर लेने वाले भगवान शिव के रूप नीलकंठ का दशहरे के पर्व पर दर्शन करने में सभी लोग पुण्य की अनुभूति करते हैं, क्योंकि लोक परंपरा के अनुसार, आज भगवान नीलकंठ दर्शनार्थियों को स्वस्थ, सुखी तथा यथावत् रहने का आशीर्वाद देते हैं। यही कारण है कि लोग सज धजकर स्वस्थ प्रसन्न मन से उनका दर्शन करते हैं।
इस पर्व के पूर्व बरसात के कारण राजाओं की यात्राएं और चातुर्मास्य के कारण संन्यासियों के आवागमन स्थगित होते हैं, किन्तु आश्विन मास के शुक्ल पक्ष के आते-आते मार्ग सुगम हो जाते हैं। स्वच्छ अंबर में पवन-संयोग के कारण मेघ बलाहक पक्षी की भांति उड़ने लगते हैं, ऋतु चक्र सुहावना हो जाता है, शस्यश्यामला धरा फलीभूत हो कृषक के गृह को समृद्ध बना देती है। आज विजय दशमी की प्रासंगिकता पहले की अपेक्षा अधिक गहराती जा रही है, क्योंकि कदम-कदम पर रावण, खरदूषण, बाली और कुंभकरण देखे जा सकते हैं। आज के परिवेश में इन पर विजय की आवश्यकता है और इन्हीं अर्थों में विजयादशमी सार्थक है।– आचार्य कृष्णदत्त शर्मा