ऐसे होती हैं दिवाली की तैयारी
इस दिन सुबह की शुरुआत होती है घर-आंगन की साफ-सफाई और सज्जा से। इसके बाद घर के गोवंश के सीगों में तेल तलाकर उन्हें तिलक के बाद उनके लिए विशेष आटे के गोले जिन्हें पींडा कहा जाता है, उन्हें प्यार से खिलाया जाता है। बग्वाल के दिन सुबह-सुबह पकवान के रूप में स्वाले और पकौड़े बनाने की परंपरा है। यह परंपरा मैदानों में रह रहे गढ़वाली परिवारों में आज भी चली आ रही है। गुड़गांव निवासी प्रीति बिष्ट कहती हैं, हम बचपन में बग्वाल के दिन कंडी (बांस की बनी टोकरी) में स्वाले-पकौड़े भरकर गांव में घर-घर जाते थे और स्वाली पकौड़ी बांटते थे।
बग्वाल से जुड़ी है रोचक परंपरा
बग्वाल से जुड़ी एक रोचक परंपरा है भैल्लो जलाने की। उत्तराखंड का सांस्कृतिक एवं राजनीतिक इतिहास में डॉ. बेणीराम अंथ्वाल लिखते हैं – महिलाएं जहां बग्वाल पकाने में व्यस्त रहतीं, वहीं पुरुष चीड़ के छुलकों या रिंगाल या तिल की सूखी टहनियों से लंबी गठरी बनाते और उसे खास रस्सी से बांधा जाता। शाम के समय घरों में दीये जलाने के बाद औजी ढोल-दमौ बजाकर सभी को भैल्लो खेलने के लिए आमंत्रित करते हैं।
अनिष्ट शक्तियों को करते हैं खत्म
खाली खेतों में लोग जुटते और भैल्लो में आग लगाकर उसे एक दूसरे के भैल्लो से भिड़ाया जाता या हवा में चारों तरह घुमाया जाता। यह चूंकि धीरे-धीरे सुलगने वाली चीजों से बनता है इसलिए आग धीरे-धीरे सुलगती रहती है और रोशनी करती है। माना जाता है कि इस तरह अनिष्ट शक्तियों को भगाया जाता है। आधे घंटे तक भैल्लो खेलने के बाद गढ़वाल के गांवों में ढोल-दमौ पर नृत्य और झुमेलो की परंपरा रही है। कुछ जगहों पर खास आयोजन भी होते हैं। डॉ. अंथ्वाल ने एक जगह लिखा भी है – गढ़वाल की नागपुर पट्टी के तहत बैंजी गांव में इस दिन समुद्र मंथन, वासुकी नाग और देवासुर संग्राम का प्रतीकात्मक मंचन भी किया जाता है।
Garhwal Diwali Celebration 2022 : उत्तराखंड के गढ़वाल में ऐसे मनाते हैं दिवाली, भैल्लो जलाने की है खास परंपरा
आज देशभर में दिवाली का पर्व मनाया जा रहा है और सायंकाल के समय लक्ष्मी-गणेश का पूजन किया जाएगा। एक ही पर्व को जिस तरह देश के अलग-अलग हिस्सों में भिन्न तरह से मनाने की परंपरा है। उसी तरह उत्तरखंड के गढ़वाल में भी दीपावली का पर्व बग्वाल के नाम से जाना जाता है। भगवान राम के वनवास से लौटने के उपलक्ष्य में बग्वाल की रात दीये, अनिष्ट को भगाने के लिए खास तरह से बनाए भैल्लो (पटाखे का एक रूप) तो जलाए जाते हैं, मगर लक्ष्मी-गणेश पूजन की परंपरा नहीं रही है।