इस तरह मनाया जाता है हालडा उत्सव
गाहर, चंद्रा और पट्टन घाटियों में इस त्यौहार के दिन देवदार की लकड़ी की मशालें जलाई जाती हैं और खुशियों के गीत गाए जाते हैं। दरअसल लाहौल स्पीति के कई इलाकों में लोग हिंदू और बौद्ध धर्म दोनों को मानते हैं। सदियों से यही परंपरा चली आ रही है। इसकी झलक यहां की संस्कृति और त्योहारों में भी देखने को मिलती है। बौद्ध पंचांग के अनुसार लामा हर इलाके के लिए हालड़ा की तारीख तय करते हैं और उसी के हिसाब से त्यौहार मनाया जाता है।
इसलिए मनाया जाता है हालडा उत्सव
लाहौल स्पीति में इन दिनों बर्फ की मोटी चादर बिछ जाती है और कई जगह पर तो तापमान माइनस 30 डिग्री से भी नीचे चला जाता है। लोग अपने घरों में बंद हो जाते हैं और मान्यता है कि स्थानीय देवता भी स्वर्ग लौट जाते हैं। ऐसे में बुरी शक्तियों का प्रभाव बढ़ जाता है। इन बुरी शक्तियों को भगाने के लिए इस त्यौहार को मनाया जाता है। बर्फबारी और बर्फीली हवाओं के बीच सभी लोग मशाल लेकर रात को हालड़ो-हालड़ो कहते हुए निकलते हैं और बुरी आत्माओं को भगाने की रस्म पूरी करते हैं। इसके बाद घरों में जश्न होता है और लोग एक दूसरे के साथ खुशियां मनाते हैं।
हालडा उत्सव का महत्व
जानकार बताते हैं कि दरअसल लाहौल और स्पीति में सर्दियां किसी भयानक मंजर से कम नहीं होतीं। भारी बर्फबारी और ठंड के चलते घर से बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है। ऐसे में एक-दूसरे के साथ मिलकर रहना और खुशियां मनाना ज्यादा जरूरी होता है। इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए इस तरह के त्योहार जोश के साथ मनाए जाते हैं, ताकि लोग सर्दियों के इन महीनों में एक-दूसरे से बिलकुल कट ना जाएं।