Kullu Dussehra Mela 2022 : कुल्लू के अनोखे दशहरे के बारे में जानिए खास बातें, देवलोक से आते हैं देवी-देवता भी

पूरे देश में जब दशहरा का पर्व मना लिया जाता है, तब एक अनोखा दशहरा होता है, जिसमें न तो रावण का पुतला जलाया जाता है और न ही उसकी कहानियां कही जाती हैं। देवताओं के मिलन और उनके रथों को खींचते हुए ढोल-नगाड़ों की धुनों पर नाटी नाचते लोगों का यह दिलचस्प मेला कुल्लू के दशहरे के रूप में पूरी दुनिया में मशूहर है। आश्विन मास की दशमी तिथि से इस त्योहार की शुरुआत होती है। इस पर्व की शुरुआत 5 अक्टूबर दिन बुधवार से हो रही है। इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दशहरे के मेले की शुरुआत कर सकते हैं। सात दिनों तक चलने वाला कल्लू का दशहरा हिमाचल की धार्मिक और संस्‍कृति की आस्था का प्रतीक है। आइए जानते हैं कुल्लू के दशहरे के बारे में खास बातें…

देव लोक से आते हैं देवी-देवता

हिमाचल प्रदेश के इस अनोखे दशहरे की शुरुआत भी तब होती है, जब बाकी सारी दुनिया दशहरा मना लेती है। बाकी जगहों की तरह एक दिन का दशहरा भी नहीं होता, उत्सव 7 दिन तक चलता है। इस बार कुल्लू का दशहरा 11 अक्टूबर तक मनाया जा रहा है। यहां इस त्योहार को दशमी कहते हैं। यहां के लोगों का मानना है कि करीब 1000 देवी-देवता इस अवसर पर देव लोक पृथ्‍वी पर आकर इसमें शामिल होते हैं।

100 से ज्यादा देवी-देवता होते हैं शामिल

कुल्लू का दशहरा हिमाचल की संस्कृति, परंपरा, रीति-रिवाज और ऐतिहासिक नजर से बेहद अहम है। भगवान रघुनाथ की भव्य रथयात्रा से दशहरा शुरू होता है और सभी स्थानीय देवी-देवता ढोल-नगाड़ों की धुनों पर देव मिलन में आते हैं। दरअसल हिमाचल के लगभग हर गांव का अलग देवता होता है और लोग उन्हें कर्ता-धर्ता मानते हैं। उनका मानना है कि बर्फीली ठंड और सीमित संसाधनों के बावजूद वे इन पहाड़ों पर देवताओं की कृपा से शान से रह पाते हैं। इनमें 100 से ज्यादा देवी-देवताओं को सजी हुई पालकियों पर बैठाकर शामिल किया जाता है।

कल्लू दशहरे का इतिहास

ढालपुर मैदान में जब दशहरा पहली बार 1662 में मनाया गया था तो उस समय सिर्फ देव परंपराओं से ही यह पर्व शुरू हुआ था। न तो कोई व्यापार था और न ही किसी तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रम। कोरोना काल में फिर उसी तरह से दशहरा हुआ था। हालांकि इस बार रौनक पूरे उफान पर होगी। इस दशहरे के पहले दिन दशहरे के देवी और मनाली की हिडिंबा कुल्लू आती हैं। इस दौरान राजघराने के सभी सदस्य देवी-देवताओं के आशीर्वाद लेने पहुंचते हैं।

रघुनाथजी को माना सबसे बड़ा देवता

कहा जाता है कि 1650 के दौरान कुल्लू के राजा जगत सिंह को भयंकर बीमारी हो गई थी। ऐसे में एक बाबा पयहारी ने उन्हें बताया कि अयोध्या के त्रेतानाथ मंदिर से भगवान रघुनाथ की मूर्ति लाकर उसके चरणामृत से ही इलाज होगा। कई संघर्षों के बाद रघुनाथ जी की मूर्ति को कुल्लू में स्थापित किया गया और राजा जगत सिंह ने यहां के सभी देवी-देवताओं को आमंत्रित किया, जिन्होंने भगवान रघुनाथजी को सबसे बड़ा देवता मान लिया। देव मिलन का प्रतीक दशहरा उत्सव आरंभ हुआ, यह आज तक जारी है।