परम्पराओं के अनुसार नागा सन्यासियों को सर्दी हो या गर्मी, हर समय निर्वस्त्र ही रहना पड़ता है। तन पर धूनी लपेटे, अपने मन को दीक्षा लेने के पश्चात् ये अनुशासित कर लेते हैं तथा तप, ध्यान और ब्रह्मचर्य का कठोर पालन करते हैं। नागा साधु प्राचीन काल से धर्म, समाज और संस्कृति की रक्षा के लिए समर्पित रहे हैं। नागा साधु सांसारिक जीवन और उसके सुखों का त्याग करते हैं। ये साधु अधिकतर जंगलों, गुफाओं, और पर्वतों में रहते हैं। ज्यादातर नागा साधु नर्मदा तट, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश की पहाड़ियों में प्रवास करते हैं और कुम्भ आदि मेले के समय ये एक साथ समूह में देखे जाते हैं। यूं तो नागा निर्वस्त्र रहते हैं, परन्तु जिन्हें अखाड़ों की व्यवस्था सम्भालनी होती है, उन्हें यदा-कदा निमित्त मात्र के लिए वस्त्र धारण किए देखा गया है।
नागा सन्यासी नग्न रहते हुए भी महाकुंभ में अपने शरीर के उपर भस्म, फूल, तिलक, रुद्राक्ष, चिमट, रोली, चन्दन, डमरू, काजल, जटा, लोहे का छल्ला, अर्द्धचन्द्र तथा त्रिशूल, तलवार, गदा जैसे शस्त्र आदि धारण कर सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इनका आशीर्वाद लेने के लिए भक्तों की लम्बी-लम्बी कतार लगती है। परम्परा अनुसार पांच-छः वर्ष की आयु के बच्चों से लेकर लगभग 40 वर्ष के पुरुषों को अखाड़ों में नागा सन्यासियों की दीक्षा दी जाती है। दीक्षा उपरान्त इन्हें चौबीस घण्टे में एक बार सात्विक भोजन करना होता है, कहा जाता है, भोजन के लिए नागा सन्यासी सिर्फ सात घरों में भिक्षा मांग सकते हैं, अगर दुर्भाग्यवश इन सात घरों में से किसी भी घर से इन्हें भिक्षा नहीं मिली, तो इन्हें इस दिन भूखा ही रहना पड़ता है। नागा साधु बनना आसान नहीं है, यह एक कठिन और अनुशासित प्रक्रिया है।