मानव देह पांच स्थूल तत्वों से निर्मित है। लेकिन सिर्फ़ देह का तब तक कोई अर्थ नहीं है जब तक जड़ में चेतना प्रस्फुटित न हो। चेतन यानी आत्म और परम आत्मा। भारतीय दर्शन में शिव को अंतर्चेतना माना गया है. आध्यात्मिक मान्यतायें शिव को आंतरिक शक्ति मानती हैं। शव यानी जड़ में ई यानी शक्ति को प्रविष्ट करने की प्रक्रिया है शिव। आध्यात्म कहता है कि आत्मा जब किसी खोल में, पिण्ड में, शरीर में डाल दी गयी तो वो उसके नियम से बँध गयी। और आत्मा स्वयं की क्षमता अनजान हो गयी. जैसे समझ लें कि मेमोरी की फाइल डीलिट कर दी गई। क्योंकि यदि आत्मा का स्वयं की शक्ति से परिचय बना रहता तो इतनी सक्षम उर्जा को एक छोटे से पिण्ड में बाँध पाना संभव ही ना होता। और उसे एक अदने से शरीर से बांध कर उसे अदना बना देना संभव ही ना हो पाता। लिहाज़ा ये सृष्टि चल ही ना पाती। और यह समूचा निज़ाम ठप हो जाता। इस कायनात को चलाने के लिये आवश्यक हो गया कि पहले व्यक्ति से उसके शिव के बोध का विस्मरण कराया जाये। यानी शिव से दूर किया जाये। शिवत्व से महरूम किया जाए। अतएव शरीर में शिवत्व का प्रावधान रखा ही नही गया, रचा ही नही गया। यदि शिवत्व होता तो इतनी बड़ी चेतना एक मामूली से पिण्ड के इशारे पर चल ही ना पाती।
कहीं पुन: किसी भी प्रकार से शिवत्व सक्रिय ना हो जाये इसके लिये अंत:करण की रचना की गयी और उसे हमारे शरीर के तत्वों में ना मिलाकर उसे अलग से जोड़ दिया गया। अंत:करण एक ऐसा टूल है जिसमें सुरत यानि जीवात्मा की समस्त शक्तियों को निष्क्रिय करनें की क्षमता विद्यमान है. यह मन, बुद्धि चित्त और अहंकार से निर्मित है। इस अंत:करण नें रूह को उसके शिव से पूर्णत: अलग थलग कर दिया, जुदा कर दिया.. परे कर दिया। आप मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार में उलझ गये और अपने शिवत्व को भूल बैठे। आप अपने ही भीतर विद्यमान शिव से दूर हो गये। आपको मन नें उलझा दिया, चित्त नें चित्त कर दिया.. और अपनी बुद्धि को ही आप अपनी असली शक्ति समझ बैठे। आप शिव से यानी अपनी असली चेतन शक्ति से दूर हो गये। और शिवमय होते हुए भी आप शिवहीन हो गये। बस यहीं से आपके दुर्भाग्य का आग़ाज हुआ.. फजीहत की शुरुआत हुई।
क्यों महत्वपूर्ण है शिवरात्रि
फाल्गुन के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की रात्रि में अंत:करण अपनी सबसे कमज़ोर स्थिति में होता है। यह रात्रि सुरत यानी जीवात्मा के लिये परिचय हेतु, स्वयं से साक्षात्कार के लिये सर्वश्रेष्ठ होती है। इस रात्रि में स्व जागरण सहज हो जाता है। सरल हो जाता है। संभव हो जाता है। इसी त्रयोदशी को शिवरात्रि कहते हैं। महाशिवरात्रि कहते है। पर्व भाग्य बदलने का काल होता है। आध्यात्मिक मान्यतायें पर्व पर दिवस की जगह रात्रि को महत्वपूर्ण मानता है। अलग अलग मान्यतायें इसके भिन्न भिन्न तर्क देती हैं। पर सबके मूल में दिवस के कोलाहल से दूर रात्रि के पहर को आंतरिक और आत्मिक तरंगों के प्रसार के लिए उत्तम माना गया है।
क्या है शिव ताण्डव
जब युगों युगों के बाद कभी सत्य का ज्ञान होता है और आप अपने शिव की पहचान करके शिवनेत्र को खोलनें में कामयाब हो जाते हो तब जीवात्मा अपनी उर्जा यानी अपने शिव में अंगीकार होकर अपनें जिस रोष का इज़हार करती है उसे ही ताण्डव कहा गया।
सदगुरुश्री दयाल
(डॉ स्वामी आनन्द जी)
आध्यात्मिक गुरु