मगर भगवान तो प्रेम के भूखे हैं, मंत्र या विधि की वे जरा भी अपेक्षा नहीं करते। उन्होंने रात में साधु को स्वप्न में कहा, ‘सदन के यहां मुझे बड़ा सुख मिलता था, वहां से उठाकर तुम मुझे यहां क्यों ले आए, मांस तौलते समय उसका स्पर्श पाकर मैं बड़े आनंद का अनुभव करता था। उसके मुख से निकले शब्द मुझे मधुर स्तोत्र जान पड़ते थे। यहां मैं घुटन महसूस कर रहा हूं। अच्छा होता तुम मुझे वहीं पहुंचा देते।’
जागने पर साधु महाराज तुरंत शालिग्राम लेकर सदन के पास पहुंच गए। उन्हें बताया कि यह कोई बाट या पत्थर नहीं, बल्कि साक्षात शालिग्राम भगवान हैं। यह सुन सदन को पश्चाताप हुआ। मन ही मन बोले, ‘मैं भी कितना पापी हूं कि भगवान को अब तक अपवित्र स्थल पर रखता रहा।’ उन्हें पश्चाताप की मुद्रा में देख साधु ने उन्हें अपने सपने की बात बताई और कहा कि भगवान को और कुछ नहीं चाहिए। वह तो बस सच्चे प्यार के भूखे हैं जो आपसे उन्हें मिल रहा है।
संकलन: राधा नाचीज