यह संसार जड़ और चेतन के योग से बना है। जड़ यानी मृत, चेतन यानी जीवित। जड़ भी अकेला नही है। यह पंच महाभूतों के योग-संयोग से निर्मित है। जल, पृथ्वी, अग्नि, वायु और आकाश। चेतना तो एक प्रवाहमान ऊर्जा है, जो शब्द स्वरूप है। जो ज्ञानात्मक, भावात्मक और क्रियात्मक त्रिविध स्वरुपा है। चेतना के अभाव में अगर कुछ शेष है तो वह जड़ता है, निष्क्रियता है, गतिहीनता है। अष्टांग योग के आठ हिस्से हैं। पांच अंग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान-भजन और समाधि।
प्रथम पांच अंग यम, नियम, आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहार बाह्य साधना है। शेष तीन अंग धारणा, ध्यान और समाधि आंतरिक साधना कहलाती हैं। बहिरंग अनुष्ठित होने पर ही आंतरिक साधना में परिपक्वता आती है। और उसमें गति और लय प्रस्फुटित होती है। यम तथा नियम शील, क्षमा व तपस्या के द्योतक हैं। यम का अर्थ है संयम, जिसके पांच हिस्से हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय यानी दूसरे के द्रव्य के लिए स्पृहा से परे, ब्रह्मचर्य, तथा अपरिगृह।
इसी प्रकार नियम अर्थात् अनुशासन, जिसके भी पांच प्रकार हैं। शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय यानी सिमरन और प्रणिधान अर्थात् अर्पण व समर्पण। समर्पण यानी परम सत्ता के आगे भक्तिपूर्वक शरणागत हो जाना। आसन यानी देह को स्वस्थ रख बाह्य स्थिरता की साधना है। प्राणायाम प्राणस्थैर्य की साधना है। श्वास प्रश्वास की गति के विच्छेद का नाम प्राणायाम है। बाहरी वायु को अंगीकार करना श्वास है। भीतरी वायु का बहिर्गमन प्रश्वास है। इसके अभ्यास से प्राण में स्थिरता आती है जिससे अंतर्मन की चंचलता समाप्त होती है।
प्रत्याहार, प्राणस्थैर्य और मन:स्थैर्य के मध्यवर्ती अभ्यास का नाम ‘प्रत्याहार’ है। प्रति=प्रतिकूल, आहार=वृत्ति। प्राणायाम द्वारा प्राण के अपेक्षाकृत शांत होने पर मन की बहिर्मुख गति स्वभावत: न्यूनतम हो जाता है। और इंद्रियां बाह्य विषयों से परे अंतर्मुखी हो जाती है। जिससे अंतर में आत्मबोध का दीप प्रज्ज्वलित होता है। इसी का नाम प्रत्याहार है
अंतिम तीनों अंग अंतर्मन:स्थैर्य का उपक्रम है। जब मन की बाह्य गति निरुद्ध हो जाती है और अभ्यासी अंतर्मुख होकर स्थिर होने का प्रयास करता है। तब इसी चेष्टा की आरंभिक गति का नाम धारणा है। हृदय या नासिका के अग्रभाग या अंग विशेष पर अथवा बाह्य लक्ष्य पर स्वयं को जोड़ना धारणा है। धारणा यानी धारण करना।
ध्यान-भजन इसके आगे की व्यवस्था है। ध्यान यानी जब जहां हो, वहां रहना। जब अंतर्मन में एक बिन्दु पर ज्ञान एकाकार रूप से गतिमान होता है, ध्यान कहलाता हैं। भजन शब्द से जोड़ने और जुड़ने की क्रिया प्रक्रिया है। धारणा और ध्यान-भजन दोनों दशाओं में वृत्ति प्रवृति गतिमान होती है, प्रवाहमान होती है। दोनों में फ़र्क़ बस इतना है कि कि धारणा में एक वृत्ति से विरुद्ध वृत्ति का भी प्राकट्य होता है। पर ध्यान में सदृशवृत्ति ही प्रवाहित होती है, विसदृशवृत्ति नहीं।
ध्यान- भजन के पकने यानी परिपक्व होने की स्थिति ही समाधि है। समाधि, यानी समा जाना, विलीन हो जाना, पूर्ण में, परिपूर्ण में। और परम चेतना में मिलकर परम हो जाना। जब समाधि चित्त आलंबन के आकार में प्रतिभासित होती है, जीव का बाह्य स्वरूप अप्रासंगिक हो जाता है और तब मात्र आलंबन ही प्रकाशवान होता है। आंतरिक शब्द ही गुंजायमान होता है। वह शब्द जो मूल है आपका। वजूद। आत्मा का अस्तित्व है। यही दशा समाधि कहलाती है। और समाधि के बाद प्रज्ञा का प्रस्फुटन होता है। बस यही तो योग का परम लक्ष्य है।
सदगुरुश्री डॉक्टर स्वामी आनन्द जी